Showing posts with label वेद/उपनिषद्/शास्त्र. Show all posts
Showing posts with label वेद/उपनिषद्/शास्त्र. Show all posts

Saturday, August 8, 2020

योगका व्यावहारिक रूप है संस्कृत भाषा के रहस्य - शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

दुनिया की पहली पुस्तक की भाषा होने के कारण संस्कृत भाषा को विश्व की प्रथम भाषा मानने में कहीं कोई संशय की गुंजाइश नहीं हैं।इसके सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण सर्वश्रेष्ठता भी स्वयं सिध्द है।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य की धनी हाने से इसकी महत्ता भी निर्विवाद है। इतना सब होने के बाद भी बहुत कम लोग ही जानते है कि संस्कृत भाषा अन्य भाषाओ की तरह केवल अभिव्यक्ति का साधन मात्र ही नहीं है; अपितु वह मनुष्य के सर्वाधिक संपूर्ण विकास की कुंजी भी है। इस रहस्य को जानने वाले मनीषियों ने प्राचीन काल से ही संस्कृत को देव भाषा और अम्रतवाणी के नाम से परिभाषित किया है। संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं वल्कि संस्कारित भाषा है इसीलिए इसका नाम संस्कृत है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं वल्कि महर्षि पाणिनि; महर्षि कात्यायिनि और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है । जिस प्रकार साधारण पकी हुई दाल को शुध्द घी में जीरा; मैथी; लहसुन; और हींग का तड़का लगाया जाता है;तो उसे संस्कारित दाल कहते हैं। घी ; जीरा; लहसुन, मैथी ; हींग आदि सभी महत्वपूर्ण औषधियाँ हैं। ये शरीर के तमाम विकारों को दूर करके पाचन संस्थान को दुरुस्त करती है।दाल खाने वाले व्यक्ति को यह पता ही नहीं चलता कि वह कोई कटु औषधि भी खा रहा है; और अनायास ही आनन्द के साथ दाल खाते-खाते इन औषधियों का लाभ ले लेता है।
ठीक यही बात संस्कारित भाषा संस्कृत के साथ सटीक बैठती है।जो भेद साधारण दाल और संस्कारित दाल में होता है ;वैसा ही भेद अन्य भाषाओं और संस्कृत भाषा के बीच है।संस्कृत भाषा में वे औषधीय तत्व क्या है ? यह जानने के लिए विश्व की तमाम भाषाओं से संस्कृत भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है।
संस्कृत में निम्नलिखित चार विशेषताएँ हैं जो उसे अन्य सभी भाषाओं से उत्कृष्ट और विशिष्ट बनाती हैं।
१ अनुस्वार (अं ) और विसर्ग(अ:)
सेस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभ दायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं —
यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि।
और
नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं—
यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि।
अब जरा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं।
उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भौंरे की तरह गुंजन करना होता है, और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जावेगा।
कपालभाति और भ्रामरी प्राणायामों से क्या लाभ है? यह बताने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्वामी रामदेव जी जैसे संतों ने सिद्ध करके सभी को बता दिया है। मैं तो केवल यह बताना चाहता हूँ कि संस्कृत बोलने मात्र से उक्त प्राणायाम अपने आप होते रहते हैं।
जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- '' राम फल खाता है``
इसको संस्कृत में बोला जायेगा- '' राम: फलं खादति"
राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं। यही संस्कृत भाषा का रहस्य है।
संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों। अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना।
२- शब्द-रूप
संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप। विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है,जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं। जैसे राम शब्द के निम्नानुसार 25 रूप बनते हैं।
यथा:- रम् (मूल धातु)
राम: रामौ रामा:
रामं रामौ रामान्
रामेण रामाभ्यां रामै:
रामाय रामाभ्यां रामेभ्य:
रामत् रामाभ्यां रामेभ्य:
रामस्य रामयो: रामाणां
रामे रामयो: रामेषु
हे राम! हेरामौ! हे रामा:!
ये 25 रूप सांख्य दर्शन के 25 तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिस प्रकार पच्चीस तत्वों के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है। और इन 25 तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को प्राप्त होने लगती है।
सांख्य दर्शन के 25 तत्व निम्नानुसार हैं।-
आत्मा (पुरुष)
(अंत:करण 4 ) मन बुद्धि चित्त अहंकार
(ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण
(कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्
(तन्मात्रायें 5) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द
( महाभूत 5) पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश
३- द्विवचन
संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन। सभी भाषाओं में एक वचन और बहु वचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है।
जैसे :- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं:- रामौ , रामाभ्यां और रामयो:। इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध ,उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।
४ सन्धि
संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। ये संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।ऐंसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।
''इति अहं जानामि" इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।
यथा:- १ इत्यहं जानामि।
२ अहमिति जानामि।
३ जानाम्यहमिति ।
४ जानामीत्यहम्।
इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है। जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं नीरोग हो जाता है।
इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं ,अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है। यह वह भाषा है, जिसके उच्चारण करने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो सकता है। इसीलिए इसे देवभाषा और अमृतवाणी कहते हैं।

Thursday, May 2, 2019

श्री कृष्ण कौन थे?? कैसे थे ?? कौन थी राधा?? देखो देखो हिंदुओं की एक और मूर्खता।


मूर्खता यह की श्री कृष्ण भगवान् को राधा के साथ जोड़ना। अश्लीलता भरा वर्णन करना। प्रेम लीला रास लीला दिखाना। 16108 गोपियों से शादी करना।
शर्म नहीं आती जब देखो तब कृष्ण राधा से जुडी पोस्ट कॉपी पेस्ट कर देते हैं। नकलची बन्दर न कहें तो और क्या कहें??
ये होती है हिंदुओं की भेड़ चाल।
और अगर कोई जाकिर नाइक जैसा मुल्ला इन्ही की अश्लीलता को उजागर करे प्रश्न उठादे इनके देवी देवताओं पर तो ये हिन्दू चुप ऐसे चुप जैसे जुबान ही कट गयी हो।
अरे कृष्ण के साथ राधा का नाम जोड़के आप खुद ही भगवान् श्रीकृष्ण को गाली दे रहे हो। और गर्व महसूस करते हो हिन्दुओ!!!
योगिराज धर्म संस्थापक श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र में कहीं भी कलंक नहीं है। वे संदीपनी ऋषि के आश्रम में शिक्षा दीक्षा लिए तो रास लीला रचाने गोपियो और राधा के बीच कब आ गए ?। अपनी बुद्धि खोलो और विचारो।
श्री कृष्ण जी वेदों और योग के ज्ञाता थे। उनके जीवन पर कलंक मत लगाओ हिंदुओं। जागो। कब तक सोते रहोगे??।
श्री कृष्ण भगवान् सम्पूर्ण ऐस्वर्य के स्वामी थे। दयालु थे। योगी थे। वेडॉन के ज्ञाता थे। वेद ज्ञाता न होते तो विश्वप्रसिद्ध "गीता का उपदेश " न देते।
जो श्री कृष्ण जी मात्र एक विवाह रुक्मिणी से किये और विवाह पश्चात् भी 12 वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन किया । तत्पश्चात प्रद्युम्न नाम का पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। ऐसे योगी महापुरुष को रास लीला रचाने वाले छलिया चूड़ी बेचने वाला 16 लाख शादिया करने वाला आदि लांछन लगाते शर्म आनी चाहिए।
अपने महापुरुषों को जानो हिंदुओं।कब तक ऐसी मूर्खता दिखाओगे।
जिस श्री कृष्ण का नाम तुम हिन्दू लोग राधा के साथ जोड़ते हो जान लो राधा क्या थी उनकी............
राधा का नाम पुराणों में आता है। सम्पूर्ण महाभारत में इस काल्पनिक राधा का नाम तक नहीं है, भागवत् पुराण में श्रीकृष्ण की बहुत सी लीलाओं का वर्णन है, पर यह राधा वहाँ भी नहीं है. राधा का वर्णन मुख्य रूप से ब्रह्मवैवर्त पुराण में आया है. यह पुराण वास्तव में कामशास्त्र है, जिसमें श्रीकृष्ण राधा आदि की आड़ में लेखक ने अपनी काम पिपासा को शांत किया है, पर यहाँ भी मुख्य बात यह है कि इस एक ही ग्रंथ में श्रीकृष्ण के राधा के साथ भिन्न-भिन्न सम्बन्ध दर्शाये हैं, जो स्वतः ही राधा को काल्पनिक सिद्ध करते हैं. देखिये- ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मखंड के पाँचवें अध्याय में श्लोक 25,26 के अनुसार राधा को कृष्ण की पुत्री सिद्ध किया है. क्योंकि वह श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से उत्पन्न हुई बताया है. ब्रह्मवैवर्त पुराण प्रकृति खण्ड अध्याय 48 के अनुसार राधा कृष्ण की पत्नी (विवाहिता) थी, जिनका विवाह ब्रह्मा ने करवाया. इसी पुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय 49 श्लोक 35,36,37,40, 47 के अनुसार राधाा श्रीकृष्ण की मामी थी. क्योंकि उसका विवाह कृष्ण की माता यशोदा के भाई रायण के साथ हुआ था. गोलोक में रायण श्रीकृष्ण का अंशभूत गोप था. अतः गोलोक के रिश्ते से राधा श्रीकृष्ण की पुत्रवधु हुई. क्या ऐसे ग्रंथ और ऐसे व्यक्ति को प्रमाण माना जा सकता है? हिन्दी के कवियों ने भी इन्हीं पुराणों को आधार बनाकर भक्ति के नाम पर शृंगारिक रचनाएँ लिखी हैं. ये लोग महाभारत के कृष्ण तक पहुँच ही नहीं पाए. जो पराई स्त्री से तो दूर, अपनी स्त्री से भी बारह साल की तपस्या के बाद केवल संतान प्राप्ति हेतु समागम करता है, जिसके हाथ में मुरली नहीं, अपितु दुष्टों का विनाश करने के लिए सुदर्शन चक्र था, जिसे गीता में योगेश्वर कहा गया है. जिसे दुर्योधन ने भी पूज्यतमों लोके (संसार में सबसे अधिक पूज्य) कहा है, जो आधा पहर रात्रि शेष रहने पर उठकर ईश्वर की उपासना करता था, युद्ध और यात्रा में भी जो निश्चित रूप से संध्या करता था. जिसके गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र को ऋषि दयानन्द ने आप्तपुरुषों के सदृश बताया, बंकिम बाबू ने जिसे सर्वगुणान्ति और सर्वपापरहित आदर्श चरित्र लिखा, जो धर्मात्मा की रक्षा के लिए धर्म और सत्य की परिभाषा भी बदल देता था. ऐसे धर्म-रक्षक व दुष्ट-संहारक कृष्ण के अस्तित्त्व पर लांछन लगाना मूर्खता ही है।अब हम आर्य निवेदन व् चेतावनी अब हम अपने महापुरुषो व् बलिदानियों का चरित्र हरण नही होने देँगे।आओ इस जन्माष्टमी पर हम संकल्प लेवें विद्या की व्रद्धि व् अविद्या के नाश करने का ,सत्य को ग्रहण व् असत्य को छोड़ने व् छुड़वाने का।

Wednesday, March 27, 2019

संस्कृत भाषामा कति शब्द बन्लान्

संस्कृत भाषामा कति शब्द बन्लान् ? पढेर तपाँइ छक्क पर्नुहुनेछ ।
के तपाँइले कहिल्यै सोच्नु भएको छ ? नेपालीमा खा, जा, पठ् जस्ता धातुबाट बन्ने शब्दका रूपहरू कति होलान् ? अझ एउटै 'खा' धातु बाट बन्ने शब्द रूपहरू अनुमान गर्नुस् । जस्तै - खान्छ, खान्छन्, खान्छिन्, खानुहुन्छ, खाइँदै, खान्छे, खान्छस्, खानेछस्, खानेछु, खानुहुनेछ, खानेछिन्, ख्वाइनेछ, ख्वाइनेछिन् आदि । यस्ता शब्दका रूपहरू लिङ्ग, वचन, काल, पुरूष आदिमा चल्दछ । अब अनुमान गर्नुहोस्, कति वटा शब्दहरू बन्ला? कति २०? ५० ? १०० ? २००? वा ५०० ? अझ दिमाखलाइ फराकिलो बनाएर सोच्दा यो अङ्क १००० वा २००० भन्दा माथी जान सक्दैन भनेर पनि अनुमान गर्नु भएको होला। यस्तै अंग्रेजीमा कति बन्लान् त? अरू भाषाहरूमा नी ? तर संस्कृतमा एउटै धातुबाट बन्ने शब्दरूप तपाँइले सोच्न पनि नसक्ने अंकमा बन्दछ । पत्याउनु भएन ? आफैं हेर्नुहोस् ।
संस्कृतमा महर्षि पाणिनिले पदहरूलाइ सुबन्त र तिङन्तगरि दुइ भागमा विभक्त गरेका छन् । नामआदि सुबन्त पदहुन् भने क्रियापदआदि तिङन्त पद हुन् । संस्कृत भाषामा एक -एक धातु बाट लाखौं शब्दहरु बन्दछन् । संस्कृतको विशेषता भनेकै यहि हो । जुन भाषामा शब्दमा विविधता पाइन्छन् त्यो भाषा समृद्ध भाषाको श्रेणीमा आउँछ । अब हामी उदाहरणबाट बुझ्ने कोशिश गरौं ।
संस्कृतमा दश लकार हुन्छन् । लट्, लिट्, लुट्, लृट्, लेट्, लोट्, लङ्, लिङ्, लुङ्, लृङ् । लकारको अर्थ काल हो । लेट् लकार वेदमा मात्र प्रयुक्त हुन्छ । प्रायः व्यवहारमा लेट् लकारको प्रयोग गरिदैन । लिङ् लकारको दुइ भेद हुन्छ । विधिलिङ् र आशीर्लिङ् । यसरी हेर्दा सामान्य व्यवहारमा पनि दश लकारको प्रयोग पाइन्छ ।
प्रत्येक लकारमा तीन पुरूष हुन्छन् । प्रथम, मध्यम र उत्तम पुरूष र प्रत्येक पुरूषमा तीन वचन पनि हुन्छ । एकवचन, द्विवचन र बहुबचन । यसकारण एउटा लकारमा न्यूनतम ९ वटा पदरूप हुन जान्छन् । कहिँ कहिँ त रूपभेदको कारणले यो संङ्ख्या बढ्छ पनि ।
यसरी लट् लकारमा भू धातुको- भवति, भवतः, भवन्ति, भवसि, भवथः, भवथः, भवामि, भवावः, भवामः इत्यादि ९ वटा र बाँकी ९ लकारको रूप पनि यसैगरि बन्दा- ९x१०=९० वटा रूप बन्छ ।
यहाँ यो रूप कर्तृवाच्य परस्मैपदको हो । यदि धातु आत्मनेपदवाला हुन्छ भने यसै गरी ९० वटा रूप बन्छ । यसैगरी कर्म वाच्यमा पनि ९० वटा रूप सिद्ध हुन्छ ।
चाहना भन्ने अर्थमा धातुमा सन् प्रत्यय लाग्दछ । 'बुभूषति' = हुन चाहन्छ । कुनै पनि भाषामा यस्तो विशेषता पाइदैन । 'जिगमिषति'= जान चाहन्छ । यसै गरि यसमा पनि परस्मैपदि र आत्मनेपदि गरी १० लकारमा १८० रूप बन्छ । यसको पनि कर्मवाच्य आदिमा 'बुभूष्यते' आदि ९० रूप बन्छ ।
बार बार हुनु अर्थमा धातुमा यङ् प्रत्यय हुन्छ । यो प्रत्यय एकाच धातुमा मात्र हुन्छ, जसको आदि वर्ण हल वा व्यञ्जन हुन्छ । जस्तै भ् + ऊ -- भू , प+अठ् -- पठ् । यसबाट 'बोभूयते'=आदि ९० रूप बन्छ । यङ् लोप भएमा बन्ने रूप 'बोभवीति' तथा 'बोभोति' आदि एकवचनमा दुइ रूपको कारणले ३०+९०=१२० वटा रूप बन्छ । र यसको कर्मवाच्य, भाववाच्य कर्म कर्तृवाच्य आदिमा पनि १० वटै लकारमा रूप बन्दछ ।
त्यस्तै प्रेरणा अर्थमा धातुमा णिच्, भएर फेरी आत्मनेपद र परस्मै पद गरी १८० वटा रूप बन्छ । जस्तै भावयति, भावयतः, भावयन्ति परस्मैपदिमा र भावयते, भावयेते, भावयन्ते आदि आत्मनेपद रूपमा । यसको संख्या पनि १८० नै भयो ।
त्यस्तै सन्, यङ्, णिच् प्रक्रियाले बने शब्दहरू पुनः मिलेर ९०-९० वटा रूप बन्छ । जस्तै - पुनः पुनः भवितुमिच्छति = 'बोभूयिषते' (फेरि फेरि हुन चाहन्छ ।) , पुनः पुनः भावयितुमिच्छति = बोभूययिषति आदि ।
वेदमा त अझ प्रयुक्त हुने लेट् लकारको धेरै रूप हुन्छन् । जस्तै भू धातुको लेट् लकारको केवल प्रथम पुरूषको एकवचनमा बन्ने रूपहरू - भविषति, भाविषाति, भाविषद्, भाविषाद् , भाविषत्, भाविषात्, भविषति, भविषाति, भविषद्, भविषाद्, भविषत्, भविषात्, भवति, भवाति, भवद्, भवाद् , भवत्, भवात् आदि । त्यस्तै द्विवचनमा ६ खालको रूप, बहुवचनमा १२ खालको रूप, मध्यम पुरूषको द्विवचनमा ६, बहुबचनमा ६, उत्तम पुरूषको एकवचनमा, द्विवचन र बहुवचनमा १२-१२ प्रकारका रूपहरू बन्दछन् ।
अन्य लकार समान लेट् मा पनि आत्मनेपद, भाववाच्य, कर्मवाच्य, सन्, यङ्, णिच् आदि प्रक्रियाबाट पद बन्न सक्छ ।
यसरी केवल 'भू' धातुकाट लेट् लकार सहित सबै ११ वटा लकारमा बन्ने तिङन्तरूप ६३३६ हुन्छ ।
क्रियापदमा निष्पन्न रूपको साथमा लाग्ने, तरप्, तमप्, कल्पप्, देश्य, देशीयर, अकच्, रूपप् आदि केही तद्धित प्रत्यहरू विशिष्ट अर्थमा लाग्दछ । त्यस अनुसार 'भवतितराम्','भवतितमाम्','भवतिकल्पम्','भवतिदेश्यम्', भवतिदेशीयम्, भवतकि, भवतिरूपम् बन्छ । जुन अव संख्यामा ६३३६x७=४४३५२ वटा रूपहरू बन्ने भए । जुन पूर्व रूपसँग मिलेर (४४३५२+६३३६)=५०६८८ रूप हुन्छन् ।
अब उपसर्गमा पनि लागौं न होइन त?
उपसर्गको योगले धातुको अर्थमा विशिष्टता आउँदछ भने कहिँ अर्थ पनि बदलिन सक्छ । जस्तै प्रभवः, पराभवः, सावः, अनुभवः विभवः आभव, अधिभव, उदव, अभिभवः, प्रतिभवः, परिभवः आदि । नेपालीमा जस्तै, आहार, विहार, संहार प्रहार बनेजस्तै । संस्कृतमा जम्मा २२ उपसर्ग छन् । यी उपसर्गको योगमा (५०६८८×२२)= १११५१३६ रूप बन्ने भए । अब जम्मा जम्मी (११,१५,१३६+५०,६८८)= ११,६५,८२४ (एघार लाख, पैंसठ्ठी हजार आठसय चौबिस ) रूप बन्ने भए । जुन केवल भू धातुबाट बन्ने रूपहरू हुन् ।
अझै चित्त बुझेन ?
पाणिनीय धातुपाठमा २००० भन्दा अधिक धातुहरू रहेका छन् । यिनीहरूमा कुनै धातु स्वरादि रहेका छन् जसमा यङ् प्रत्यय नहुने कारणले यङन्त रूपमा कमी हुन्छ । यदि औषतरूपमा बन्ने रूपको संख्या १० लाख मान्ने हो भने पनि सबैधातु बाट बन्ने रूप करीव दुइ अरब (१००००००×२०००)= २,००,००,००,००० बन्छ ।
माथीको संख्या केवल पाणिनीय धातुपाठ बन्ने संख्या हो । यदि पाणिनी अतिरिक्त काशकृत्स्न धातुपाठका लगभग ८०० वटा धातु, सौत्र धातु अष्टाध्यायी र जिनेन्द्र व्याकरण आदिको लगभव २०० धातु जुन पाणिनिकृत व्याकरणमा छैन जोड्ने हो भने १००० धातु बाट फेरि पूर्वोक्त रिती अनुसार करिव १ अरव रूप अरू बन्छ । येसरि जम्मा तीन अरब (३,००,००,००,०००) त संस्कृतमा केवल धातुरूप मात्रै बन्छ ।
काँ यतिमै मात्र सिमित हो र ? अझै बाँकी छ ।
नामरूप आदिको त मैले व्याख्या नै गरेको छुइन नी । यो व्याख्यालाइ म बढाउँदै गर्छु । तपाँइहरूले पनि साथ दिनुहोला है ।
जयतु संस्कृतम् ।।

Thursday, March 21, 2019

वैदिक ग्रन्थहरुमा गुरूत्वाकर्षण

Author:
Shantiman Shrestha:
#हजारौं वर्षअघि रचना भएको वैदिक शास्त्रहरुमा पृथ्वी , सुर्य र व्रन्हान्ड सम्बन्धी सम्पुर्ण रहस्यहरु उदघाटन भएको छ । सुर्य सिद्धान्तमा सुर्य र पृथ्वी विचको दुरि , पृथ्वीले सुर्यको परिक्रमा गर्न लाग्ने समय , सुर्यको प्रकाश पृथ्वी सम्म आइपुग्न लग्ने समय लगायत तमाम रहस्य हरु किटान गरिएको छ।
वैदिक ग्रन्थहरुमा गुरूत्वाकर्षण (Law Of Gravitation) को सिद्धान्त सम्बन्धि कैयौं शुत्रहरु छ्न जसलाइ बुझ्न नसक्दा हामिहरु सर आइज्याक न्युटनलाइ गुरुत्वाकर्षण नियमको प्रतिपादक मान्दै र पश्चिमीहरुलाइ बैज्ञानिक खोजको सम्पुर्ण श्रेय दिंदै आफ्नै पुर्खाको अनमोल खोज प्रती विमुख भैरहेका छौं । थाहा छैन यहाँका शिक्षाशास्त्रीहरु , शिक्षा नीति तर्जुमा गर्ने हर्ताकर्ताहरु र पाठ्यक्रम तयार गर्ने महाशयहरु कसको ईसारा बमोजिम र कसको कस्तो स्वार्थपूर्तिका लागि पाठ्यक्रम तयार गर्छन । सापेक्षतावादको सिद्धान्त , अणु-परमाणुको सिद्धान्त , चुम्बकीय ध्रुब सम्बन्धि सिद्धान्त (वास्तुशास्त्र यसैमा आधारित छ) ; पानीलाइ बरफ बनाउने विधि , ब्याट्रीको सिद्धान्त , विमान सम्बन्धी सिद्धान्त , सुर्यको प्रकाशमा सात ओटा रंग हुन्छन भन्ने सिद्धान्त लगायत खगोल विज्ञान सम्बन्धी सम्पुर्ण सिद्धान्त, प्लास्टिक सर्जरी को विधि लगायत हजारौं बैज्ञानिक खोजहरु हाम्रा ऋषिहरुले हजारौं वर्षअघि खोज गरिसकेका थिए ।
३०० वर्ष अघिसम्म पश्चिमले पृथ्वी चेप्टो छ भन्दै थियो , ग्यालेलियो ग्यालेलीले पृथ्वी गोलो छ भनेर घोषणा गरेबापत ग्यालेलियोको घोषणा बाइबिलको मान्यता बिपरित रहेको र बाइबिलको मान्यता बिपरितका सम्पुर्ण मान्यताहरु झुठ हुन भन्दै चर्चले उनको मृत्युदण्डको माग सहित उनलाइ अदालतमा उभ्याएका थिए । ग्यालेलियोले पृथ्वी चेप्टो छ भनि अदालतमा झुठ बोलेर आफ्नो ज्यान जोगाएका थिए।
हजारौं वर्षअघि रचना भएको वैदिक शास्त्रहरुमा पृथ्वी , सुर्य र व्रन्हान्ड सम्बन्धी सम्पुर्ण रहस्यहरु उदघाटन भएको छ । सुर्य सिद्धान्तमा सुर्य र पृथ्वी विचको दुरि , पृथ्वीले सुर्यको परिक्रमा गर्न लाग्ने समय , सुर्यको प्रकाश पृथ्वी सम्म आइपुग्न लग्ने समय लगायत तमाम रहस्य हरु किटान गरिएको छ।
३०० वर्ष अघिसम्म पश्चिमको यो मान्यता थियो कि रगतको संचालन कलेजोले गर्छ यसर्थ रक्त संचालनमा खराबी आएमा कलेजोको जाँच गरिन्थ्यो , डा.कृश्चियन बर्नार्डले पश्चिममा पहिलोपटक रगतको संचालन मुटुले गर्छ भन्दा उनलाइ पनि चर्चले दिनु सम्मको सास्ती दिएका थिए र उनलाइ उनी कार्यरत अस्पतालको जागिर बाटै निकाला गरेका थिए।
तर हजारौं वर्ष अघिनै यहाँका आयुर्वेदिक ग्रन्थहरुमा हृदय र रक्तसंचाल्न सम्बन्धि सम्पुर्ण तथ्यहरुको किटानी गरिएको छ तर दुर्भाग्य हामी हाम्रा सन्ततीहरुलाइ अझै पनि रक्तसंचालन मुटुले गर्छ भनेर पत्ता लगाउने डा.कृस्चियन बर्नार्ड र पृथ्वी गोलो छ भनेर पत्ता लगाउने ग्यालेलियो ग्यालिली हुन भनेर पढाइरहेका छौं। यस आलेखमा वैदिक शास्त्रहरुमा वर्णित गुरूत्वाकर्षण (Law Of Gravitation) को सिद्धान्त सम्बन्धि छोटो चर्चा गर्नेछौं।
बृहत् उपनिषदमा वर्णित गुरुत्वाकर्षण सम्बन्धी सिद्धान्त :-
बृहत् उपनिषद मा गुरूत्वाकर्षण सम्बन्धी सिद्धान्तलाई "आधारशक्ती" को रुपमा वर्णन गरिएको छ। बृहत् उपनिषदका अनुसार "आधारशक्ती" २ किसिमको हुन्छ।
१. - ऊर्ध्वशक्ति = मास्तिर खिचिने शक्ति जस्तो: अग्नि माथितिर खिचिएर जान्छ।
२. - अधःशक्ति = तलतिर खिचिएर जाने शक्ति जस्तो : पानी तलतिर खिचिएर वा वगेर जान्छ त्यस्तै ढुङ्गा लगाएत अन्य वस्तुहरु।
यस उपनिषदमा वर्णित शुत्र हेरौं:-
अग्नीषोमात्मकं जगत् ।
( बृ० उप० २.४ )
आधारशक्त्यावधृतः कालाग्निरयम् ऊर्ध्वगः ।
तथैव निम्नगः सोमः । ( बृ० उप० २.८ )
अर्थात:
सारा जगत अग्नि र सोमको समन्वय हो अग्नि को स्वभाव ऊर्ध्वगति हुन्छ र सोमको गति अधोःशक्ति हुन्छ।यी दुई शक्तिको आकर्षणले नै संसार रोकिएको छ।
महर्षि पतञ्जलीले आफ्नो ग्रन्थ व्याकरण महाभाष्य मा गुरूत्वाकर्षण को नियम उल्लेख गर्दै लेखेका छन :
"लोष्ठः क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव तिर्यक् गच्छति नोर्ध्वमारोहति ।
पृथिवीविकारः पृथिवीमेव गच्छति आन्तर्यतः"
अर्थात् :-
पृथ्वीको आकर्षण शक्ति यसप्रकारको छ कि यदि माटो को डल्लो माथी फ्याँकियो भने त्यसले आफ्नो वेग पुरा गरेपछी न त टेढो जान्छ न त अझ माथी जान्छ - जुन कि पृथ्वीको विकार हो यसैले पृथ्वी तिर नै फर्कन्छ।
भास्कराचार्य द्वितीय ले आफ्नो ग्रन्थ "सिद्धान्तशिरोमणि" मा लेखेका छन :-
"आकृष्टिशक्तिश्चमहि तया यत्
खस्थं गुरूं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या ।
आकृष्यते तत् पततीव भाति
समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे ।।"
अर्थात :-
पृथिवीको आकर्षण शक्ति छ जसको कारण पृथ्वीले माथिको गर्हुङ्गो वस्तुलाई आफुतिर आकर्षित गर्छ। उक्त वस्तु पृथ्वीतिर खसेको प्रतीत हुन्छ। पृथ्वी स्वयं चाहिँ सुर्य ईत्यादिकी आकर्षणको कारण रोकिएको छ ; यसैले यो निराधार आकाशमा स्थित छ तथा न त यो आफ्नो स्थानबाट हट्छ न त खस्छ। यो आफ्नो अक्षमा घुम्छ।
वराहमिहिर ले आफ्नो ग्रन्थ "पञ्चसिद्धान्तिका" मा लेखेका छन :-
पंचभमहाभूतमयस्तारा गण पंजरे महीगोलः ।
खेयस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः ।।
अर्थात :-
तारासमूहरूपी पंजरमा गोलो पृथ्वी यस प्रकारले रोकिएको छ जस्तो कि दुई ठुला चुम्बकको बिचमा फलाम।
(बराहमिहिर को माथिको शुत्रले पृथ्वी गोलो छ भन्ने , गुरुत्वाकर्षणको सिद्धान्त र चुम्बकीय ध्रुबको सिद्धान्त पनि एकसाथ प्रष्ट्याउँछ।)
आचार्य श्रीपतिले आफ्नो ग्रन्थ "सिद्धान्तशेखर" मा उल्लेख गरेका छन :-
"उष्णत्वमर्कशिखिनोः शिशिरत्वमिन्दौ,.. निर्हतुरेवमवनेःस्थितिरन्तरिक्षे ।।
नभस्ययस्कान्तमहामणीनां मध्ये स्थितो लोहगुणो यथास्ते ।
आधारशून्यो पि तथैव सर्वधारो धरित्र्या ध्रुवमेव गोलः ।।"
अर्थात :-
पृथ्वी अन्तरिक्षमा अडिनु यसै प्रकारले स्वभाविक छ जस्तो सुर्यमा गर्मी , चन्द्रमा शितलता र वायुमा गतिशीलता । दुई ठुला चुम्बकको बिचमा फलामको डल्लो स्थिर रहन्छ त्यसैप्रकारले पृथ्वी पनि आफ्नो कक्षमा रोकिएको छ।
६००० वर्ष पहिला नै ऋषि पिप्पलाद ले प्रश्न उपनिषद् मा उल्लेख गरेका छन:-
"पायूपस्थे - अपानम् ।
पृथिव्यां या देवता सैषा
पुरुषस्यापानमवष्टभ्य० ।
पृथिव्याम् अभिमानिनी या देवता ...
सैषा पुरुषस्य अपानवृत्तिम् आकृष्य....
अपकर्षेन अनुग्रहं कुर्वती वर्तते ।
अन्यथा हि शरीरं गुरुत्वात् पतेत् सावकाशे वा उद्गच्छेत् ।"
अर्थात :-
अपानवायु द्वारा नै दिसा-पिसाव तल आउँछ। पृथ्वीले आफ्नो आकर्षण शक्तिको माध्यमले नै मनुष्यलाइ धर्तिमै रोकेको छ नत्र मनुष्य आकासमा उड्थ्यो ।
पृथ्वीको गुरूत्वाकर्षण सम्बन्धी वैदिक शास्त्रमा उल्लेखित केही शुत्रहरुको बारे माथी चर्चा गरियो ; अन्य कैयौं ग्रन्थमा यस सम्बन्धि विस्तृतमा उल्लेख छ । हाम्रा स्वनामधन्य शिक्षाशास्त्रीहरु चाहिँ गुरुत्वाकर्षणको नियमलाइ सर आइज्याक न्युटनको नाममा "Newton's Law Of Gravitation" भन्दै झुठ कुरा घोकाइराखेका छन अझ उसलाइ जसको पुर्खाले हजारौं वर्ष पहिलानै गुरुत्वाकर्षणको नियम प्रतिपादन गरिसकेका थिए।
शिक्षाविद भै टोपलिएका यी उल्लूहरुको खोपडीमा थोरैपनि समझ बाँकी रहेछ भने गुरुत्वाकर्षणको नियमलाइ "Newton's Law Of Gravitation" होइन "Nature's Law Of Gravitation" लेखोस पाठ्यक्रममा ( के न्युटन जन्मनु अघि पृथ्वीको गुरुत्वाकर्षण शक्ति नै थिएन ?????? ) र नेपालका शिक्षकहरुको खोपडीमा गोबर होइन गिदि छ भने गुरुत्वाकर्षणको सिद्धान्त प्रतिपादन गर्ने तिम्रा पुर्खाहरु हुन भनेर पढाउन ।
मैकालेले भनेका थिए - " पुर्वीयहरुलाइ प्राचीन ऋषिहरुको अनमोल खोजको बारे जानकारी दिनु हुँदैन , यिनका पुर्खाले गरेको सम्पुर्ण खोजहरु दबाउन पर्छ नत्र यिनिहरु कहिल्यै पनि हाम्रो गुलाम हुन तयार हुँदैनन।"
भारतियहरुको मानसपटल बाट पुर्खाले खोज गरेको तमाम बैज्ञानिक रहश्यहरु विस्मृत गराउन मैकालेले बेलायती सरकारको गुप्त योजना मुताबिक शिक्षा नीति बनाएका थिए र सोही अनुसार पाठ्यक्रम तयार गरेका थिए - मैकालेको योजना मुताबिक तयार गरिएको पाठ्यक्रम भारत - नेपालमा हालसम्म पढाइ भैरहेको छ - अन्य देशहरूको कुरै नगरौं। मैकालेले भनेका थिए - " पुर्वीयहरुलाइ प्राचीन ऋषिहरुको अनमोल खोजको बारे जानकारी दिनु हुँदैन , यिनका पुर्खाले गरेको सम्पुर्ण खोजहरु दबाउन पर्छ नत्र यिनिहरु कहिल्यै पनि हाम्रो गुलाम हुन तयार हुँदैनन।"
मैकालेले हाम्रो पुर्खाले गरेको सम्पुर्ण अनमोल खोजहरु दबाउन र जनमानसको मस्तिष्कबाट ती खोजहरुको बारे सम्पुर्ण तथ्य विस्मृत गराउन लिएको खुराफाती शिक्षा नीतिलाई कार्यान्वयन गर्न Peace Core नामको INGO नेपाल छिरेको थियो - कुखुराको खोरमा छट्टु श्याल छिरे झैं .... दुर्भाग्य मान्नुपर्छ तुलनात्मक रुपले राष्ट्र्वादी र देशप्रेमी मानिएको राजा महेन्द्रले पंचायति व्यवस्थालाइ पश्चिमा देशहरुबाट आधिकारिक मान्यता दिलाउने मेसोमा Peace Coreलाई नेपाल प्रवेशको अनुमती प्रदान गरेका थिए । Peace Coreको आन्तरिक नियत बुझेर उनले केही वर्ष नरोकेको होइन तर काँग्रेस र भारतको त्रास देखाएर पश्चिमाहरु Peace Core को नाममा नेपाल छिर्न सफल भैछाडे ।
यो खुराफाती INGO ले आफ्नो पहिलो निशाना नेपालको शैक्षिक पाठ्यक्रमलाई बनायो किनकी उनिहरुलाइ थाहा छ तथ्यगत र वास्तविकतामा आधारित पाठ्यक्रम तयार हुने हो भने यो धर्तिमा एउटा पनि चिज यस्तो बच्ने छैन जुन पश्चिमिहरुले हामिले भन्दा पहिले पत्तालगाएको , जानेको वा बुझेको होस । समृद्धीकै कुरा गरौं , आज पश्चिम जुन स्थितिमा छ र सम्पन्नताको शिखर चुमेको भनिन्छ त्यो भन्दा कैयौं गुणा सम्पन्नता र वैभवता पुर्वले भोगेको र चुमेको थियो ।
वास्तवमा पस्चिमको यो सम्पन्नता कृतृम हो ; पश्चिमको यो सम्पन्नताको पछाडि युद्ध , हतियारको व्यापार , करोडौं नागरिकको रगत , खुराफात लुकेको छ । विश्वमा युद्ध मात्र रोकिने हो भने यिनको कथित सम्पन्नता एकाएक ९०% ले तल झर्छ , यसको कारण छ । फ्रान्स , बेलायत , रुस , अमेरिका , जर्मनी लगाएतका कथित सम्पन्न राष्ट्रको मुल आम्दानी नै हतियारको बिक्री हो ।

Wednesday, February 20, 2019

एआर रहमान सवरीमाला अधिकारकर्मी



ए.आर. रहमान भारतिय चर्चित संगीतकार हुन्, ऊनी हिन्दु बाट इस्लाम धर्म परिवर्तन गरेपछि आफ्नो नाम परिवर्तन गरेर अल्ला रक्खा रहमान राखे, ऊनी हिन्दु हुँदाको नाम ए.एस.दिलीप कुमार थियो।

मैले यहाँनेर उनको धर्म परिवर्तन प्रति टिप्पणी गर्न खोजेको होइन, यहाँ प्रसंगमा जोड्न के मात्रै खोजेको हो भने बिदेशी फण्ड बाट गोप्य रूपमा रकम ल्याएर अधिकारकर्मी संचारकर्मी कसरी त्यो देशको मुख्य धारको धर्म संस्कृति माथि घुमाउरो रूपमा प्रहार गर्छ भनेर छोटकरीमा उल्लेख गर्न खोजेको छु।
बिषयमा :

प्रसंग हो संगीतकार ए.आर. रहमान एउटा पुरस्कार वितरण समारोहमा उपस्थित हुँदा उद्घोषकले ए. आर. रहमानको छोरीलाई पनि बुबा संगै मञ्चमा बोलायो, जब छोरी बुर्का ओढेर मञ्चमा पुगिन हेर्ने हजारौं दर्शक बिष्मयकारी मुद्रामा अनौठो मान्दै छोरीलाई हेर्न थाले !! 

यहिं निर हो मैले भन्न खोजेको कुरा पनि यदि यही ए.आर रहमानको ठाउँमा दिलीपकुमार भएर उनको छोरीले साडीले शीरमा "घुंघट"ढाकेर मात्रै मञ्चमा उक्लेको भए यतिबेला महिला अधिकारकर्मी देखि तमाम मिडियामा कोलाहल मच्चाउदै २१ औं शताब्दीमा पनि नारीलाई अझै मुक्ति नपाएको ! दिलीपकुमार ढोंगी पुरुषवादी मनुवादी सोंच भन्दै साहेत कोही कोही त अदालत मा समेत पुगेर मुद्दा हाल्थ्यो होला ! धन्न ऊनी इस्लाम भएर जोगियो कुनै चर्चा भएन कुनै नारीवादी अधिकारकर्मी मिडिया संजालले उछालेन !
नेपालमा एउटा न्यायाधीश आयो केहि समय अगाडि आउने बितिक्कै पहिलो फैसला तराईको एउटा मन्दिरमा चलिआएको परम्परा माथि बन्देज लगाउनु भनेर आदेश जारी गर्यो !!
खेल "नबुझ्ने" लालाबालाहरु वा… वा… वा…ठिक गर्यो ! सहि फैसला गरिन भन्दै उफ्रे… ! ती न्यायाधीश पछी विवादमा पनि परे कसैले कम्युनिस्ट भनेर आरोप लगाउन थाल्यो कसैले कांग्रेस भनेर ! मैले यो न त कम्युनिस्ट हुन न त कांग्रेस नै यो त आफुलाई त्यहाँ सम्म पुर्याउने मालिक भक्त हो भनेर भन्दा कसैले पत्याएन, तर न्यायाधीश बाट निक्लेको केहि समयपछि यिनले ऊनी आफ्नो अन्न दाता बाहेक कसैको होइन रहेछ भन्ने प्रमाणित गरेर देखायो।
यिनले चलिआएको परम्परा माथि गरेको फैसलाले अब जुनसुकै हाम्रो धर्म परम्परा सांस्कृतिक मुल्य मान्यता माथि कसैको एउटा उजुरीको भरमा भारतमा जस्तै अदालतको दण्ड बर्सिन सक्ने छ भनेर नजिर राखेर गयो, तर बुकलण्ठु हरुले कहिले बुझ्ने होला यस्तो कुरा ? उनको त्यो अदालती दण्ड यहाँको मुलधारको धर्म संस्कृति माथि मात्रै हो बाँकी इसाई इस्लाम लाई होइन हुदैन भनेर बुझ्न धेरै समय लाग्ला ति लण्ठु हरुलाई…… !

भारतमा हिन्दु बाहेकका बाँकी धर्मलाई अदालतले छुँदैन छुन पाउदैन भन्ने धेरैलाई थाहा नहोला कतिसम्म भने हालैको एउटा घटना हो केराला प्रान्तको, चर्चमा बस्ने एउटि सिस्टरले पास्टर माथि बलात्कारको आरोप लगाउदै न्यायको ढोका ढकढकायो तर कुनै अदालतले उनको केश हेरेन बरु क्रीस्चियनकै पास्टरहरुको संस्थाले पो फैसला गर्यो पास्टर पवित्र छ ऊनी माथि लगाएको सबै आरोप झुठा हुन भनेर निर्णय गर्यो ! सबै तैं चुप मै चुप ! यदि पास्टरको ठाउँमा कुनै बाबा भएको भए मिडिया देखि नारीवादी अधिकारवादीको ओइरो लाग्थ्यो ! दुई चार महिना जागिर पाउथ्यो ! यता इस्लामको आफ्नो कानुन अलग्गै छ भारतिय अदालतले कुनै फैसला गर्न पाइदैन, गर्न परे मुस्लिम पर्सनल ल बोर्ड मार्फत गर्छ तर राज्यको कानुन भारतिय हिन्दुलाई मात्रै लागु हुन्छ।
दक्षिण भारत केरलाको प्रसिद्ध सवरीमाला मन्दिरमा नारी प्रवेश निशेध छ, त्यसबारेमा आफ्नै परम्परागत मान्यता रहेकोे छ तर यस्तो परम्परागत प्रचलन लाई चुनौती दिँदै एकजना महिलाले अदालतमा मुद्दा हालिन(हाल्न लगायो) त्यसपछि अदालतले फैसला गर्यो (गर्न लगायो) नारीलाई पनि मन्दिरमा प्रवेश गर्न दिनु भनेर ! त्यसपछि त्यहाँ ठुलो हिंसात्मक झडप भयो अझैसम्म यो मुद्दाको कम्पन जारी छ, तर यही प्रकृतिको मुद्दा इस्लाम वा इसाईको हकमा त्यहाँको राज्य मौन हुन्छ, यदि प्रसंग उठेछ नै भने उनीहरुको ( धर्म संस्कृतिको)निजी मामिलामा राज्यको हस्तक्षेप हुनुहुन्न भनेर सिद्धान्त तेर्साएर तर्केर बस्ने गर्छ, उदाहरणका लागि "तीन तलाक" बारेमा तिनै मानवअधिकारवादी तिनै नारीवादीहरु बोल्न नै चाहन्न बोल्नै पर्दा त्यो उनीहरुको परम्परा हो भनेर छल्न थाल्छ मिडियाले समाचार नै कभरेज गर्दैन किनकि यो मामिला हिन्दुको परेन !
मन्दिरमा विभेद बारेमा……
A)
सबैको आआफ्नो बिश्वास आस्था मान्यता हुन्छ त्यही मान्यता परम्परा हो र त्यही परम्परा आआफ्नो पहिचान हो यसमा कसैले कसैको आस्था माथि बिश्वास माथि न्याय दिने कोही हुन्न।
जापानको एक दुर्गम गाँउमा १३०० बर्ष पुरानो एउटा ठुलो माउन्ट ओमिनी नामक बौद्ध मंदिर रहेको छ, हरियाली अनि झरनाको बीचमा अवस्थित यो पुरानो मंदिरमा महिला हरुलाइ प्रबेष निषेध गरिएको छ, तर खै कसैले आपत्ति प्रकट गरेको छैन न त अदालतले नै नारी अधिकार हनन भयो भनेर भनेको छ आफ्नो सदिऔं देखिनको परम्परालाई निरन्तरता दिँदै आएको छ।
भारतको राजस्थान प्रान्तमा १४ औं शताब्दीमा निर्मित ब्रह्मा मंदिर,यो संसारमा एकमात्र ब्रम्हाको मन्दिर हो, यहाँ बिबाहित पुरुष लाई मन्दिरमा जान परम्परागत रूपमा निशेध गरेको छ, यहाँ महिला भक्तहरुको मात्रै भिंड लाग्ने गरेको हुन्छ, खै त पुरुषले विभेद भयो भनेर उफ्रेको छैन त ?
C)
यहीँ छिमेकी बिहार प्रान्तको मुजफ्फरपुर स्थित माता मन्दिरमा एउटा मुख्य पुजाको समयमा पुरुषलाई मन्दिर परिसरमा समेत छिर्न पाइदैन सबै पुजा महिलाले गर्ने प्रचलन रहेको छ।
D)
भारतको केरला प्रान्तमा एउटा छक्कूलाथुकावु भन्ने भगवतीको मंदिर छ, यो मन्दिरमा नारीको पुजा हुन्छ, बर्षको एकपटक मंगसीर महिनामा यहाँ ठूलो पुजाको आयोजना हुन्छ, यहाँको पुरुष पण्डितले उक्त पुजामा दस दिन नारीको लागि उपवास बसेर पहिलो शुक्रबारको दिन पण्डितले श्रद्धालु नारीहरुको खुट्टा धुएर अनुष्ठान सम्पन्न गरिन्छ, उक्त दिनमा पुरुषहरूको मन्दिरमा प्रवेश निशेध गरेको हुन्छ।
E)
तामिलनाडु प्रान्त, कन्याकुमारी स्थित भगवती मन्दिरमा साधु सन्यासी मात्रै मन्दिरको द्वार सम्म पुग्न पाउने बाँकी पुरुषले मन्दिर परिसरमा समेत छिर्न नपाउने परम्परा सदिऔं देखि चलिरहेको छ।
F)
केराला प्रान्तको प्रसिद्ध अट्टुकल मंदिरमा पनि महिला मात्रै जान पाउँछ यो मन्दिर गिनिज बुक वल्ड रेकर्डमा पनि एकपटक सुचिकृत भएको छ, यहाँको पोंगल पर्वमा ३० लाख महिला भक्त सहभागी भएकोले रेकर्ड रहन गएको हो।
अन्तमा :
नारीले मुर्दा बोकेर सेल्फी लिनेेहरु त्यो समाचारलाई पत्रीकाको मुख्य हेड्लाईन बनाएर नारीले परम्परागत मान्यता तोड्दै भन्दै समाचार दिने मिडियाहरु एउटै ग्याङ्ग हुन भूमिका र तलव भत्ता मात्रै फरकफरक धेरै थोरै बुझ्ने हुन् त्यसैले हाम्रो चलिआएको संस्कृति परम्परा माथि घुमाउरो रूपमा धावा बोल्ने माथि सजग हौं सचेत हौं बुझ्ने प्रयास गरौं विष दिनेले तितो वस्तुमा होइन मिठो वस्तुमा दिन्छ भन्ने बुझौं !!
जय सनातन !!

Mohan Lama Rumba एतस्य/स्याः चित्रम्|
एआर रहमान र  उनकी छोरी 

Mohan Lama Rumba एतस्य/स्याः चित्रम्|
जापानको माउन्ट ओमिनि मन्दिर।

Mohan Lama Rumba एतस्य/स्याः चित्रम्|
छक्कुला थुकावु मन्दिर केराला
Mohan Lama Rumba एतस्य/स्याः चित्रम्|
बिहार मुज्जफरपुर माता मन्दिर
Mohan Lama Rumba एतस्य/स्याः चित्रम्|
 राजस्थान ब्रम्ह मन्दिर

साभार : मोहन लामा रुम्बा



Tuesday, February 5, 2019

शुन्यादि - शून्यिति

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
      ईशवास्योपनिषद का उपरोक्त मंत्र भारतीय अध्यात्मवाद एवम् दर्शन की पराकाष्ठा है। प्रायः माना जाता है कि विज्ञान को प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सकता है जबकि अध्यात्म भावनाओं पर आधारित है। वस्तुतः अध्यात्म प्रकृति से बाहर का विचार नहीं है। सूक्ष्म मन में स्थूल संसार के उदाहरणों से ही भाव जन्म लेते हैं। उपरोक्त मंत्र के शब्दानुवाद पर विचार करें। पूर्ण से पूर्ण जाने के बाद पूर्ण शेष रहना क्या संभव है?...जी हाँ, ये संभव है, यह हम नहीं शास्त्रसिद्ध गणित कहता है। अब इस मंत्र को पढ़ते समय शून्य को सामने रखें। शून्य को शून्य में शून्य जोड़ने से योगफल शून्य ही आता है। किसी भी अंक से शून्य का निरसन करने या घटाने पर वही अंक शेष  रहता है। शून्य को शून्य से गुणा करने पर उत्तर शून्य आता है। शून्य की महत्ता है कि शून्य को शून्य से विभक्त ( भाग) किया ही नहीं जा सकता। अतः सिद्ध होता है कि स्थूल जगत, भाव जगत में प्रतिबिम्बित होता है। द्वैत और अद्वैत, विज्ञान और अध्यात्म के संगम के अद्भुत उदाहरण शून्य पर पूर्ण चर्चा का प्रयास कर संपूर्ण सत्य के मार्ग का अनुशीलन करने का यह टिटिहरी यत्न  है।
      शून्य का आविष्कार भारत में हुआ था। सत्य तो  ये है कि यह भारत में ही संभव था। आविष्कार यकायक या ‘बाइचांस’ नहीं होते। ‘बाइचांस’ तो डिस्कवरी होती है। आविष्कार के लिए प्रदीर्घ परंपरा, अखण्डित चिंतन, निरंतर मंथन चाहिए। भारत जानता था ब्रह्मांड की ‘इनफिनिटी’, अतः स्वाभाविक था कि शून्य का ज्ञान यहीं से उद्घोषित होता। शून्य गणितीय मान पद्धति या वैल्यू सिस्टम में अपरिहार्य है। इसे संख्या के रूप में स्वीकार किया गया है। वस्तुतः संख्या प्रणाली शून्य के बिना अधूरी है। भारतीय संख्या शास्त्र में 1019 (महाशंख) से  10140  (असंख्येय)तक का उल्लेख मिलता है। ‘असंख्येय’ शब्द का उल्लेेख ये संकेत करता है कि (10139 ) तक की संख्या तत्कालीन भारतीय गणितज्ञों को ज्ञात थी। आर्यभट्ट का किसी संख्या का दस गुना प्राप्त करने के लिए उसके आगे शून्य रखो (स्थानं स्थानं दशं गुणम्) का सिद्धांत सर्वविदित है। ब्रह्मगुप्त के गणितीय सिद्धांतों का अध्ययन करते समय यह देखने में आता है कि उन्होंने बीजगणित एवम् ॠणात्मक संख्याओं का उपयोग भी किया हैअर्थात शून्य के अस्तित्व से हम भली भाँति परिचित थे।
      ‘ॠणात्मक संख्या’गणित का एक टर्म भर है। चिंतन प्रतिपादन करता है कि संख्या धनात्मक या ॠणात्मक नहीं होती। संख्यारेखा पर शून्य को संतुलन माना जाता है। शून्य से पहले माइनस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। वस्तुतः संख्या संतुलन के दाईं ओर बढ़े या बाईं ओर, उसका विस्तार तो अपरिमित है। दायाँ-बायाँ तो केवल दिशाओं को दर्शाता है। अपरिमेय को दिशाओं से क्या लेना देना। कहीं से भी आरंभ करें, आवश्यक है आरंभ करना। फिर ‘इनडिटरमिनेेंंट’ को दिशाएँ नियंत्रित भी कैसे कर सकती हैं?
      वैज्ञानिक सत्य है कि शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल,पात्र,परिस्थिति अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक सीमा के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।
      वस्तुतः हम वही देखते हैं जो देखना चाहते हैं। हमारी दृष्टि का, हमारे चिंतन का परिणाम है आभास। महान गणितज्ञ पाइथागोरस संख्याओं में विश्व को देखते थे। उनका मानना था कि दुनिया संख्याओं का खेल है। संसार आभासी है। शून्य भी आभासी हैपर शून्य के बिना संख्याशास्त्र का भास हो ही नहीं सकता। संसार को जाने बिना भवसागर पार नहीं हो सकता। मनुष्य तैरता है, तिरता नहीं। तिरना याने संसार में रहकर संसारिकता के भाव और उससे उपजे भार  से मुक्त रहना। जिस पदार्थ का द्रव्यमान तुलनात्मक रूप से भारहीन हो जाए, वह तिरने लगता है। जो तिरने लगता है, वह शून्य होने लगता है। शून्य विस्तार है, शून्य सार है, भले ही प्रतीत होता असार है।
      शून्य को अस्तित्वहीन कहा जाता है पर गोलाकार चित्रित किया जाता है। हम रसायनशास्त्र में किसी पदार्थ के परिचय में ‘इसकी गंध गंधहीन होती है/ ‘इसका रंग रंगहीन होता है’ लिखते हैं। ये भी तो हो सकता है कि वर्तमान में हमारी आँखें इसके रंग को देख न पा रही हों, हमारी घ्राण शक्ति इसे सूँघ न पा रही हो। निराकार में भी मूल शब्द ‘आकार’ ही होता है। यही कारण रहा होगा कि शून्य को गोलाकार चित्रित करने का चलन हुआ।
      इस चित्रण के पीछे मानस में बसी परंपराएँ तथा लोकजीवन और सांस्कृतिक मूल्य भी हैं। ब्रह्मांड को सनातन ग्रंथों ने गोलाकार बताया है। जीवन को हमारी संस्कृति ने परिक्रमा कहा है। परिक्रमा गोलाकार होती है। पूर्वजन्म से पुनर्जन्म तक की अवधारणा यों ही नहीं उपजी। वृत्त में दोनों को स्थान है।
      उपरोक्त श्लोक का एक अर्थ ये भी है कि पूर्णता और शून्यता पर्यायवाची हैं। जगत संभावनाओं का गणित है। ध्यान दें कि यहाँ आशंका नहीं अपितु संभावना शब्द प्रयुक्त हुआ है। संभावना आशा का प्रतीक है, आशंका अनिष्ट का संकेत करती है। पूर्णता और शून्यता को समझने के लिए पार्थसारथी श्रीकृष्ण और पार्थ अर्जुन का उदाहरण लिया जा सकता है। श्रीकृष्ण ज्ञान के प्रतीक हैं जबकि अर्जुन जड़ता का। ज्ञानी संसार की असारता को समझता है, अतः संसार को शून्य मानता है। अज्ञानी बिना समझे ही संसार को शून्य माने बैठा होता है। मानते दोनों ही शून्य हैं। प्रश्न ये भी उठ सकता है कि दोनों का निष्कर्ष एक-सा है तो ज्ञानी या अज्ञानी कैसे निरूपित किया जा सकता है। विचार तो ये भी हो सकता है कि क्या अनंत होना पूर्ण होना है? यदि हाँ तो अनंत परमात्मा पूर्ण है किंतु पूर्ण तो शून्य है। ऐसे में सहज प्रश्न उठ सकता है कि क्या  शून्य ही परमात्मा तत्व है? खगोलविज्ञान ब्लैक होल का उल्लेेख करता है। इस होल का अता-पता नहीं होता। केवल इतना पता होता है कि इसने जिसको गड़प लिया उसका पता -ठिकाना नहीं मिलता। इसके विशद और तार्किक विवेचन के लिए ही तो योगेश्वर ने गीता कही थी। जानकर जानना और अनजाने में जानना, दोनों में बहुत अंतर है। ज्ञानयोग इसी अंतर को समझने का मार्ग है।
      हम शून्य कभी नहीं होते। रीतना, चरम कभी नहीं होता। भरना भी चरम नहीं होता। शून्यता उत्पादक होती है। जिन्हें शून्य अंत लगता है, उनके लिए भी शून्य आवश्यक है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस सोपान के बाद खोने के लिए कुछ नहीं बचता। जब खोने का भय नहीं होता तो मनुष्य उन्मुक्त होकर कर्तव्य  का निर्वाह करता है, कर्म का आनंद लेता है, सफल होता है। उदाहरणार्थ-किसी भी खेल में श्रृृंखला हार चुकी टीम सामान्यतः अंतिम मैच जीत लेती है क्योंकि वह स्वाभाविक आनंद से खेलती है और खोने के लिए कुछ शेष नहीं होता। श्रृृंखला जीत चुकी टीम भी वांछित पा चुकी होती है, फलतः कुछ खोती नहीं । एक अर्थ में देखें तो रेखा के दोनों ओर खोने के लिए कुछ भी नहीं है अपितु कुछ पाने  की ही संभावना है। शून्य चिता नहीं किलकारी है। शून्य अंतिम नहीं प्रथम संस्कार है। मेरे एक मित्र का मानना है कि यदि हम कुएँ में गिर पड़े तब भी कपड़े गीले करके ही निकलेंगे। यही गीलापन उपलब्धि है। पाना भी दृष्टि में है, खोना भी दृष्टि में है।
      एक अवस्था होती है जब मनुष्य को लगता है कि उसके पास कुछ नहीं है। एक अन्य अवस्था में वह स्वयं को ‘सब कुछ’ संपन्न समझने लगता है। ‘कुछ नहीं‘ और ‘सब कुछ’ जीवन के दो छोर हैं। जीवन वृत्ताकार है, अतः छोर अलग- अलग नहीं हो सकते अर्थात जो आरंभ बिंदु है, वही समापन भी है। आदि और अंत का एकाकार याने ‘सब कुछ’ और ‘कुछ नहीं’एक समान हैं, ‘एवरीथिंग इस इक्वल टू  नथिंग।’
      बौद्ध मत की महायान शाखा में एक विभाग है-माध्यमिक।  माध्यमिक विभाग का विश्वास है कि संसार शून्य है और उसके सभी पदार्थ सत्ताहीन। यहाँ आस्ति-नास्ति से मुक्त होना शून्य होना है। पंडित शून्य की आशा करते हैं, उसका निषेध नहीं करते। गणित में तो शून्य लगाने से संख्या का विस्तार होता है। हम जीवन की सनातन शून्यता को समझने, उसका गणित करने के बजाय, गणित के सिद्धांत लागू कर नश्वर के आगे शून्य बढ़ाने के प्रयास में जुटे रहते हैं। ज्ञानी मनुष्य जाति का यह अज्ञान उसे हास्यास्पद कर रहा है।
      शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी, प्रकृति सब चक्राकार हैं, वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता के चलते केंद्र बनने की संभावना है।
      शून्य में गहन तृष्णा है, शून्य में गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।  शून्य के उत्सव को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ। शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें। शून्य आदि है, शून्य इति है। शून्य से आरंभ, शून्य पर अंत अर्थात शून्यादि-शून्यिति। इस  मर्म को जानते-बूझते हुए भी मनुष्य शून्य क्यों है, यह विचारणीय है।
एक हिन्दी पत्रिकाबाट 

Wednesday, December 5, 2018

ध्वनि तथा वाणी विज्ञान


सृष्टि की उत्पत्ति की प्रक्रिया नाद के साथ हुई। जब प्रथम महास्फोट (बिग बैंग) हुआ, तब आदि नाद उत्पन्न हुआ। उस मूल ध्वनि को जिसका प्रतीक ‘ॐ‘ है, नादव्रह्म कहा जाता है। पतंजली योगसूत्र में पातंजलि मुनि ने इसका वर्णन ‘तस्य वाचक प्रणव:‘ की अभिव्यक्ति ॐ के रूप में है, ऐसा कहा है। माण्डूक्योपनिषद्‌ में कहा है-

ओमित्येतदक्षरमिदम्‌ सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिपि सर्वमोड्‌◌ंकार एवं
यच्यान्यत्‌ त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव॥ माण्डूक्योपनिषद्‌-१॥

अर्थात्‌ ॐ अक्षर अविनाशी स्वरूप है। यह संम्पूर्ण जगत का ही उपव्याख्यान है। जो हो चुका है, जो है तथा जो होने वाला है, यह सबका सब जगत ओंकार ही है तथा जो ऊपर कहे हुए तीनों कालों से अतीत अन्य तत्व है, वह भी ओंकार ही है।
वाणी का स्वरूप
हमारे यहां वाणी विज्ञान का बहुत गहराई से विचार किया गया। ऋग्वेद में एक ऋचा आती है-
चत्वारि वाक्‌ परिमिता पदानि
तानि विदुर्व्राह्मणा ये मनीषिण:
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति
तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥
ऋग्वेद १-१६४-४५
अर्थात्‌ वाणी के चार पाद होते हैं, जिन्हें विद्वान मनीषी जानते हैं। इनमें से तीन शरीर के अंदर होने से गुप्त हैं परन्तु चौथे को अनुभव कर सकते हैं। इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए पाणिनी कहते हैं, वाणी के चार पाद या रूप हैं-
१. परा, २. पश्यन्ती, ३. मध्यमा, ४. वैखरी
वाणी की उत्पत्ति
वाणी कहां से उत्पन्न होती है, इसकी गहराई में जाकर अनुभूति की गई है। इस आधार पर पाणिनी कहते हैं, आत्मा वह मूल आधार है जहां से ध्वनि उत्पन्न होती है। वह इसका पहला रूप है। यह अनुभूति का विषय है। किसी यंत्र के द्वारा सुनाई नहीं देती। ध्वनि के इस रूप को परा कहा गया।
आगे जब आत्मा, बुद्धि तथा अर्थ की सहायता से मन: पटल पर कर्ता, कर्म या क्रिया का चित्र देखता है, वाणी का यह रूप पश्यन्ती कहलाता है, जिसे आजकल घ्त्ड़द्यदृद्धत्ठ्ठथ्‌ कहते हैं। हम जो कुछ बोलते हैं, पहले उसका चित्र हमारे मन में बनता है। इस कारण दूसरा चरण पश्यन्ती है।
इसके आगे मन व शरीर की ऊर्जा को प्रेरित कर न सुनाई देने वाला ध्वनि का बुद्बुद् उत्पन्न करता है। वह बुद्बुद् ऊपर उठता है तथा छाती से नि:श्वास की सहायता से कण्ठ तक आता है। वाणी के इस रूप को मध्यमा कहा जाता है। ये तीनों रूप सुनाई नहीं देते हैं। इसके आगे यह बुद्बुद् कंठ के ऊपर पांच स्पर्श स्थानों की सहायता से सर्वस्वर, व्यंजन, युग्माक्षर और मात्रा द्वारा भिन्न-भिन्न रूप में वाणी के रूप में अभिव्यक्त होता है। यही सुनाई देने वाली वाणी वैखरी कहलाती है और इस वैखरी वाणी से ही सम्पूर्ण ज्ञान, विज्ञान, जीवन व्यवहार तथा बोलचाल की अभिव्यक्ति संभव है।
वाणी की अभिव्यक्ति
यहां हम देखते हैं कि कितनी सूक्ष्मता से उन्होंने मुख से निकलने वाली वाणी का निरीक्षण किया तथा क से ज्ञ तक वर्ण किस अंग की सहायता से निकलते हैं, इसका उन्होंने जो विश्लेषण किया वह इतना विज्ञान सम्मत है कि उसके अतिरिक्त अन्य ढंग से आप वह ध्वनि निकाल ही नहीं सकते हैं।
क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है।
च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ लालू से लगती है।
ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।
त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ दांतों से लगती है।
प, फ, ब, भ, म,- ओष्ठ्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण ओठों के मिलने पर ही होता है।
स्वर विज्ञान
सभी वर्ण, संयुक्ताक्षर, मात्रा आदि के उच्चारण का मूल ‘स्वर‘ हैं। अत: उसका भी गहराई से अध्ययन तथा अनुभव किया गया। इसके निष्कर्ष के रूप में प्रतिपादित किया गया कि स्वर तीन प्रकार के हैं।
उदात्त-उच्च स्वर
अनुदात्त-नीचे का स्वर
स्वरित- मध्यम स्वर
इनका और सूक्ष्म विश्लेषण किया गया, जो संगीत शास्त्र का आधार बना। संगीत शास्त्र में सात स्वर माने गए जिन्हें सा रे ग म प ध नि के प्रतीक चिन्हों से जाना जाता है। इन सात स्वरों का मूल तीन स्वरों में विभाजन किया गया।
उच्चैर्निषाद, गांधारौ नीचै ऋर्षभधैवतौ।
शेषास्तु स्वरिता ज्ञेया:, षड्ज मध्यमपंचमा:॥
अर्थात्‌ निषाद तथा गांधार (नि ग) स्वर उदात्त हैं। ऋषभ और धैवत (रे, ध) अनुदात्त। षड्ज, मध्यम और पंचम (सा, म, प) ये स्वरित हैं।
इन सातों स्वरों के विभिन्न प्रकार के समायोजन से विभिन्न रागों के रूप बने और उन रागों के गायन में उत्पन्न विभिन्न ध्वनि तरंगों का परिणाम मानव, पशु प्रकृति सब पर पड़ता है। इसका भी बहुत सूक्ष्म निरीक्षण हमारे यहां किया गया है।
विशिष्ट मंत्रों के विशिष्ट ढंग से उच्चारण से वायुमण्डल में विशेष प्रकार के कंपन उत्पन्न होते हैं, जिनका विशेष परिणाम होता है। यह मंत्रविज्ञान का आधार है। इसकी अनुभूति वेद मंत्रों के श्रवण या मंदिर के गुंबज के नीचे मंत्रपाठ के समय अनुभव में आती है।
हमारे यहां विभिन्न रागों के गायन व परिणाम के अनेक उल्लेख प्राचीनकाल से मिलते हैं। सुबह, शाम, हर्ष, शोक, उत्साह, करुणा-भिन्न-भिन्न प्रसंगों के भिन्न-भिन्न राग हैं। दीपक से दीपक जलना और मेघ मल्हार से वर्षा होना आदि उल्लेख मिलते हैं। वर्तमान में भी कुछ उदाहरण मिलते हैं।
कुछ अनुभव
(१) प्रसिद्ध संगीतज्ञ पं. ओंकार नाथ ठाकुर १९३३ में फ्लोरेन्स (इटली) में आयोजित अखिल विश्व संगीत सम्मेलन में भाग लेने गए। उस समय मुसोलिनी वहां का तानाशाह था। उस प्रवास में मुसोलिनी से मुलाकात के समय पंडित जी ने भारतीय रागों के महत्व के बारे में बताया। इस पर मुसोलिनी ने कहा, मुझे कुछ दिनों से नींद नहीं आ रही है। यदि आपके संगीत में कुछ विशेषता हो, तो बताइये। इस पर पं. ओंकार नाथ ठाकुर ने तानपूरा लिया और राग ‘पूरिया‘ (कोमल धैवत का) गाने लगे। कुछ समय के अंदर मुसोलिनी को प्रगाढ़ निद्रा आ गई। बाद में उसने भारतीय संगीत की भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा रॉयल एकेडमी ऑफ म्यूजिक के प्राचार्य को पंडित जी के संगीत के स्वर एवं लिपि को रिकार्ड करने का आदेश दिया।
२. आजकल पाश्चात्य जीवन मूल्य, आचार तथा व्यवहार का प्रभाव पड़ने के साथ युवा पीढ़ी में पाश्चात्य पॉप म्यूजिक का भी आकर्षण बढ़ रहा है। पॉप म्यूजिक आन्तरिक व्यक्तित्व को कुंठित और निम्न भावनाओं को बढ़ाने का कारण बनता है, जबकि भारतीय संगीत जीवन में संतुलन तथा उदात्त भावनाओं को विकसित करने का माध्यम है। इसे निम्न अनुभव प्रयोग स्पष्ट कर सकते हैं।
पांडिचेरी स्थित श्री अरविंद आश्रम में श्रीमां ने एक प्रयोग किया। एक मैदान में दो स्थानों पर एक ही प्रकार के बीज बोये गये तथा उनमें से एक के आगे पॉप म्यूजिक बजाया गया तथा दूसरे के आगे भारतीय संगीत। समय के साथ अंकुर फूटा और पौधा बढ़ने लगा। परन्तु आश्चर्य यह था कि जहां पॉप म्यूजिक बजता था, वह पौधा असंतुलित तथा उसके पत्ते कटे-फटे थे। जहां भारतीय संगीत बजता था, वह पौधा संतुलित तथा उसके पत्ते पूर्ण आकार के और विकसित थे। यह देखकर श्रीमां ने कहा, दोनों संगीतों का प्रभाव मानव के आन्तरिक व्यक्तित्व पर भी उसी प्रकार पड़ता है जिस प्रकार इन पौधों पर पड़ा दिखाई देता है।
(३) हम लोग संगीत सुनते हैं तो एक बात का सूक्ष्मता से निरीक्षण करें, इससे पाश्चात्य तथा भारतीय संगीत की प्रकृति तथा परिणाम का सूक्ष्मता से ज्ञान हो सकता है। जब कभी किसी संगीत सभा में पं. भीमसेन जोशी, पं. जसराज या अन्य किसी का गायन होता है और उस शास्त्रीय गायन में जब श्रोता उससे एकाकार हो जाते हैं तो उनका मन उसमें मस्त हो जाता है, तब प्राप्त आनन्द की अनुभूति में वे सिर हिलाते हैं। दूसरी ओर जब पाश्चात्य संगीत बजता है, कोई माइकेल जैक्सन, मैडोना का चीखते-चिल्लाते स्वरों के आरोह-अवरोह चालू होते हैं तो उसके साथ ही श्रोता के पैर थिरकने लगते हैं। अत: ध्यान में आता है कि भारतीय संगीत मानव की नाभि के ऊपर की भावनाएं विकसित करता है और पाश्चात्य पॉप म्यूजिक नाभि के नीचे की भावनाएं बढ़ाता है जो मानव के आन्तरिक व्यक्तित्व को विखंडित कर देता है।
ध्वनि कम्पन किसी घंटी पर प्रहार करते हैं तो उसकी ध्वनि देर तक सुनाई देती है। इसकी प्रक्रिया क्या है? इसकी व्याख्या में वात्स्यायन तथा उद्योतकर कहते हैं कि आघात में कुछ ध्वनि परमाणु अपनी जगह छोड़कर और संस्कार जिसे कम्प संतान-संस्कार कहते हैं, से एक प्रकार का कम्पन पैदा होता है और वायु के सहारे वह आगे बढ़ता है तथा मन्द तथा मन्दतर इस रूप में अविच्छिन्न रूप से सुनाई देता है। इसकी उत्पत्ति का कारण स्पन्दन है।
प्रतिध्वनि : विज्ञान भिक्षु अपने प्रवचन भाष्य अध्याय १ सूत्र ७ में कहते हैं कि प्रतिध्वनि (कड़ण्दृ) क्या है? इसकी व्याख्या में कहा गया कि जैसे पानी या दर्पण में चित्र दिखता है, वह प्रतिबिम्ब है। इसी प्रकार ध्वनि टकराकर पुन: सुनाई देती है, वह प्रतिध्वनि है। जैसे जल या दर्पण का बिम्ब वास्तविक चित्र नहीं है, उसी प्रकार प्रतिध्वनि भी वास्तविक ध्वनि नहीं है।
रूपवत्त्वं च न सामान्य त: प्रतिबिम्ब प्रयोजकं
शब्दास्यापि प्रतिध्वनि रूप प्रतिबिम्ब दर्शनात्‌॥
विज्ञान भिक्षु, प्रवचन भाष्य अ. १ सूत्र-४७
‘वाचस्पति के अनुसार शब्दस्य असाधारण धर्म:‘- शब्द के अनेक असाधारण गुण होते हैं। गंगेश उपाध्याय जी ने ‘तत्व चिंतामणि‘ में कहा- ‘वायोरेव मन्दतर तमादिक्रमेण मन्दादि शब्दात्पत्ति।‘ वायु की सहायता से मन्द-तीव्र शब्द उत्पन्न होते हैं।
वाचस्पति, जैमिनी, उदयन आदि आचार्यों ने बहुत विस्तारपूर्वक अपने ग्रंथों में ध्वनि की उत्पत्ति, कम्पन, प्रतिध्वनि, उसकी तीव्रता, मन्दता, उनके परिणाम आदि का हजारों वर्ष पूर्व किया जो विश्लेषण है, वह आज भी चमत्कृत करता है।
#वेदो_की_ओर_लौटें_जड़ो_से_जुड़ें
llजय श्री रामll

Saturday, September 1, 2018

प्रमाण

प्रमाण

भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैं जो सत्य ज्ञान करने में सहायता करे। अर्थात् वह बात जिससे किसी दूसरी बात का यथार्थ ज्ञान हो। प्रमाण न्याय का मुख्य विषय है। 'प्रमा' नाम है यथार्थ ज्ञान का। यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। गौतम ने चार प्रमाण माने हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द


परिचय

प्रमाणका लक्षण

'यथार्थ अनुभव' को 'प्रमा' कहते हैं। 'स्मृति' तथा 'संशय' आदि को 'प्रमा' नहीं मानते। अतएव अज्ञात तत्त्व के अर्थज्ञान को 'प्रमा' कहा है। इस अनधिगत अर्थ के ज्ञान के उत्पन्न करने वाला करण 'प्रमाण' है। इसी को शास्त्रदीपिका में कहा है--
कारणदोषबाधकज्ञानरहितम् अगृहीतग्राहि ज्ञानं प्रमाणम् ।
अर्थात जिस ज्ञान में अज्ञात वस्तु का अनुभव हो, अन्य ज्ञान से वाधित न हो एवं दोष रहित हो, वही 'प्रमाण' है।

प्रमाण के भेद

इंद्रियों के साथ संबंध होने से किसी वस्तु का जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है। लिंग (लक्षण) और लिंगी दोनों के प्रत्यक्ष ज्ञान से उत्पन्न ज्ञान को अनुमान कहते हैं। किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य द्वारा दूसरी वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वह उपमान कहलाता है। जैसे, गाय के सदृश ही नील गाय होती है। आप्त या विश्वासपात्र पुरुष की बात को शब्द प्रमाण कहते हैं। 

इन चार प्रमाणों के अतिरिक्त मीमांसक, वेदांती और पौराणिक चार प्रकार के और प्रमाण मानते हैं—ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अनुपलब्धि या अभाव। जो बात केवल परंपरा से प्रसिद्ध चली आती है वह जिस प्रमाण से मानी जाती है उसको ऐतिह्य प्रमाण कहते हैं। जिस बात से बिना किसी देखी या सुनी बात के अर्थ में आपत्ति आती हो उसके लिये अर्थापत्ति प्रमाण हैं। जैसे, मोटा देवदत्त दिन को नहीं खाता, यह जानकर यह मानना पड़ता है कि देवदत्त रात को खाता है क्योंकि बिना खाए कोई मोटा हो नहीं सकता। व्यापक के भीतर व्याप्य—अंगी के भीतर अंग—का होना जिस प्रमाण से सिद्ध होता है उसे संभव प्रमाण कहते हैं। जैसे, सेर के भीतर छटाँक का होना। किसी वस्तु का न होना जिससे सिद्ध होता है वह अभाव प्रमाण है। जैसे चूहे निकलकर बैठे हुए हैं इससे बिल्ली यहाँ नहीं है। पर नैयायिक इन चारों को अलग प्रमाण नहीं मानते, अपने चार प्रमाणों के अंतर्गत मानते हैं।
भारतीय दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों में प्रमाणों की संख्या भिन्न-भिन्न है। किन-किन दर्शनों में कौन-कौन प्रमाण गृहीत हुए हैं यह नीचे दिया जाता है-
  • चार्वाक - केवल प्रत्यक्ष प्रमाण
  • बौद्ध - प्रत्यक्ष और अनुमान
  • सांख्य - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम (शाब्द)
  • पातंजल - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम (शाब्द)
  • वैशेषिक - प्रत्यक्ष और अनुमान
  • रामानुज पूर्णप्रज्ञ - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम (शाब्द)
  • भाट्टमत में 'प्रमाण' के छः भेद हैं-- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थातपत्ति तथा अनुपलब्धि या अभाव।

प्रत्यक्ष

इनमें से आत्मा, मन और इंद्रिय का संयोग रूप जो ज्ञान का करण वा प्रमाण है वही प्रत्यक्ष है। वस्तु के साथ इंद्रिय- संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है उसी को 'प्रत्यक्ष' कहते हैं। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।
गौतम ने न्यायसूत्र में कहा है कि इंद्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। जैसे, यदि हमें सामने आग जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि 'आग जल रही है'। इस ज्ञान में पदार्थ और इंद्रिय का प्रत्यक्ष संबंध होना चाहिए। यदि कोई यह कहे कि 'वह किताब पुरानी है' तो यह प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है; क्योंकि इसमें जो ज्ञान होता है, वह केवल शब्दों के द्वारा होता है, पदार्थ के द्वारा नहीं, इसिलिये यह शब्द प्रमाण के अंतर्गत चला जायगा। पर यदि वही किताब हमारे सामने आ जाय और मैली कुचैली या फटी हुई दिखाई दे तो हमें इस बात का अवश्य प्रत्यक्ष ज्ञान हो जायगा कि 'यह किताब पुरानी है'। 

प्रत्यक्ष ज्ञान किसी के कहे हुए शब्दों द्वारा नहीं होता, इसी से उसे 'अव्यपदेश्य' कहते हैं। प्रत्यक्ष को अव्यभिचारी इसलिये कहते हैं कि उसके द्वारा जो वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है। कुछ नैयायिक इस ज्ञान के करण को ही प्रमाण मानते हैं। उनके मत से 'प्रत्यक्ष प्रमाण' इंद्रिय है, इंद्रिय से उत्पन्न ज्ञान 'प्रत्यक्ष ज्ञान' है। पर अव्यपदेश्य पद से सूत्रकार का अभिप्राय स्पष्ट है कि वस्तु का जो निर्विकल्पक ज्ञान है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है।
नवीन ग्रंथकार दोनों मतों को मिलाकर कहते हैं कि प्रत्यक्ष ज्ञान के करण (अर्थात प्रत्यक्ष प्रमाण) तीन हैं
  • (१) इंद्रिय,
  • (२) इंद्रिय का संबंध और
  • (३) इंद्रियसंबंध से उत्पन्न ज्ञान
पहली अवस्था में जब केवल इंद्रिय ही करण हो तो उसका फल वह प्रत्यक्ष ज्ञान होगा जो किसी पदार्थ के पहले पहल सामने आने से होता है। जैसे, वह सामने कोई चीज दिखाई देती है। इस ज्ञान को 'निर्विकल्पक ज्ञान' कहते हैं। दूसरी अवस्था में यह जान पड़ता है कि जो चीज सामने है, वह पुस्तक है। यह 'सविकल्पक ज्ञान' हुआ। इस ज्ञान का कारण इंद्रिय का संबंध है। जब इंद्रिय के संबंध से उत्पन्न ज्ञान करण होता है, तब यह ज्ञान कि यह किताब अच्छी है अथवा बुरी है, प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। यह प्रत्यक्ष ज्ञान ६ प्रकार का होता है -
(१) चाक्षुष प्रत्यक्ष, जो किसी पदार्थ के सामने आने पर होता है। जैसे, यह पुस्तक नई है।
(२) श्रावण प्रत्यक्ष, जैसे, आँखें बंद रहने पर भी घंटे का शब्द सुनाई पड़ने पर यह ज्ञान होता है कि घंटा बजा

(३) स्पर्श प्रत्यक्ष, जैसे बरफ हाथ में लेने से ज्ञान होता है कि वह बहुत ठंढी है।

(४) रसायन प्रत्यक्ष, जैसे, फल खाने पर जान पड़ता है कि वह मीठा है अथवा खट्टा है।

(५) घ्राणज प्रत्यक्ष, जैसे, फूल सूँघने पर पता लगता है कि वह सुगंधित है। और

(६) मानस प्रत्यक्ष जैसे, सुख, दुःख, दया आदि का अनुभव।

अनुमान

प्रत्यक्ष को लेकर जो ज्ञान (तथा ज्ञान के कारण) को अनुमान कहते हैं। जैसे, हमने बराबर देखा है कि जहाँ धुआँ रहता है वहाँ आग रहती है। इसी को नैयायिक 'व्याप्ति ज्ञान' कहते हैं जो अनुमान की पहली सढी़ है। हमने कहीं धूआँ देखा जो आग कि जिस धूएँ के साथ सदा हमने आग देखी है वह यहाँ हैं। इसके अनंतर हमें यह ज्ञान या अनुमान उत्पन्न हुआ कि 'यहाँ आग है'। अपने समझने के लिये तो उपयुक्त तीन खंड काफी है पर नैयायिकों का कार्य है दूसरे के मन में ज्ञान कराना, इससे वे अनुमान के पाँच खंड करते हैं जो 'अवयव' कहलाते हैं।
  • (१) प्रतिरा—साध्य का निर्देश करनेवाला अर्थात् अनुमान से जो बात सिद्ध करना है उसका वर्णन करनेवाला वाक्य, जैसे, यहाँ पर आग है।
  • (२) हेतु—जिस लक्षण या चिह्न से बात प्रमाणित की जाती है, जैसे, क्योंकि यहाँ धुआँ है।
  • (३) उदाहरण—सिद्ध की जानेवाली वस्तु बतलाए हुए चिह्न के साथ जहाँ देखी गई है उसा बतानेवाला वाक्य। जैसे,— जहाँ जहाँ धूआँ रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, जैसे 'रसोईघर में'।
  • (४) उपनय—जो वाक्य बतलाए हुए चिह्न या लिंग का होना प्रकट करे, जैसे, 'यहाँ पर धूआँ है'।
  • (५) निगमन—सिद्ध की जानेवाली बात सिद्ध हो गई यह कथन।
अतः अनुमान का पूरा रूप यों हुआ— यहाँ पर आग है (प्रतिज्ञा)। क्योकि यहाँ धूआँ है (हेतु)। जहाँ जहाँ धूआँ रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, 'जैसे रसोई घर में' (उदारहण)। यहाँ पर धूआँ है (उपनय)। इसीलिये यहाँ पर आग है (निगमन)। साधारणतः इन पाँच अवयवों से युक्त वाक्य को न्याय कहते हैं।
नवीन नैयायिक इन पाँचों अवयवों का मानना आवश्यक नहीं समझते। वे प्रमाण के लिये प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टांत इन्हीं तीनों को काफी समझते हैं। मीमांसक और वेदांती भी इन्हीं तीनों को मानते हैं। बौद्ध नैयायिक दो ही मानते हैं, प्रतिज्ञा और हेतु। 'दुष्ट हेतु' को हेत्वाभास कहते हैं पर इसका प्रमाण गौतम ने प्रमाण के अंतर्गत न कर इसे अलग पदार्थ (विषय) मानकर किया है। इसी प्रकार छल, जाति, निग्रहस्थान इत्यादि भी वास्तव में हेतुदोष ही कहे जा सकते हैं। केवल हेतु का अच्छी तरह विचार करने से अनुमान के सब दोष पकडे़ जा सकते हैं और यह मालूम हो सकता है कि अनुमान ठीक है या नहीं।

उपमान

गौतम का तीसरा प्रमाण 'उपमान' है। किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वही उपमान है। जैसे, नीलगाय गाय के सदृश होती है। किसी के मुँह से यह सुनकर जब हम जंगल में नीलगाय देखते हैं तब चट हमें ज्ञान हो जाता है कि 'यह नीलगाय है'। इससे प्रतीत हुआ कि किसी वस्तु का उसके नाम के साथ संबंध ही उपमिति ज्ञान का विषय है। वैशेषिक और बौद्ध नैयायिक उपमान को अलग प्रमाण नहीं मानते, प्रत्यक्ष और शब्द प्रमाण के ही अंतर्गत मानते हैं। वे कहते हैं कि 'गो के सदृश गवय होता है' यह शब्द या आगम ज्ञान है क्योंकि यह आप्त या विश्वासपात्र मनुष्य कै कहे हुए शब्द द्वारा हुआ फिर इसके उपरांत यह ज्ञान क्रि 'यह जंतु जो हम देखते हैं गो के सदृश है' यह प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। इसका उत्तर नैयायिक यह देते हैं कि यहाँ तक का ज्ञान तो शब्द और प्रत्यक्ष ही हुआ पर इसके अनंतर जो यह ज्ञान होता है कि 'इसी जंतु का नाम गवय है' वह न प्रत्यक्ष है, न अनुमान, न शब्द, वह उपमान ही है। उपमान को कई नए दार्शनिकों ने इस प्रकार अनुमान कै अंतर्गत किया है। वे कहते हैं कि 'इस जंतु का नाम गवय हैं', 'क्योंकि यह गो के सदृश है' जो जो जंतु गो के सदृश होते है उनका नाम गवय होता है। पर इसका उत्तर यह है कि 'जो जो जंतु गो के सदृश्य होते हैं वे गवय हैं' यह बात मन में नहीं आती, मन में केवल इतना ही आता हैं कि 'मैंने अच्छे आदमी के मुँह से सुना है कि गवय गाय के सदृश होता है ?'

शब्द

चौथा प्रमाण है - शब्द। सूत्र में लिखा है कि आप्तोपदेश अर्थात आप्त पुरुष का वाक्य शब्दप्रमाण है। भाष्यकार ने आप्तपुरुष का लक्षण यह बतलाया है कि जो साक्षात्कृतधर्मा हो, जैसा देखा सुना (अनुभव किया) हो ठीक ठीक वैसा ही कहनेवाला हो, वही आप्त है, चाहे वह आर्य हो या म्लेच्छ। गौतम ने आप्तोपदेश के दो भेद किए हैं— दृष्टार्थ और अदृष्टार्थ। प्रत्यक्ष जानी हुई बातों को बतानेवाला दृष्टार्थ और केवल अनुमान से जानी जानेवाली बातों (जैसे स्वर्ग, अपवर्ग, पुनर्जन्न इत्यादि) को बतानेवाला अदृष्टार्थ कहलाता है। इसपर भाष्य करते हुए वात्स्यान ने कहा है कि इस प्रकार लौकिक और ऋषि— वाक्य (वैदिक) का विभाग हो जाता है अर्थात् अदृष्टार्थ मे केवल वेदवाक्य ही प्रमाण कोटि में माना जा सकता है। नैयायिकों के मत से वेद ईश्वरकृत है इससे उसके वाक्य सदा सत्य और विश्वसनीय हैं पर लौकिक वाक्य तभी सत्य माने जा सकते हैं। जब उनका कहनेवाला प्रामाणिक माना जाय। सूत्रों में वेद के प्रामाण्य के विषय में कई शंकाएँ उठाकर उनका समाधान किया गया है। मीमांसक ईश्वर को नहीं मानते पर वे भी वेद को अपौरुषेय और नित्य मानते हैं। नित्य तो मीमांसक शब्द मात्र को मानते हैं और शब्द और अर्थ का नित्य संबंध बतलाते हैं। पर नैयायिक शब्द का अर्थ के साथ कोई नित्य संबंध नहीं मानते। वाक्य का अर्थ क्या है, इस विषय में बहुत मतभेद है। मीमांसकों के मत से नियोग या प्रेरणा ही वाक्यार्थ है—अर्थात् 'ऐसा करो', 'ऐसा न करो' यही बात सब वाक्यों से कही जाती है चाहे साफ साफ चाहे ऐसे अर्थवाले दूसरे वाक्यों से संबंध द्वारा। पर नैयायिकों के मत से कई पदों के संबंध से निकलनेवाला अर्थ ही वाक्यार्थ है। परंतु वाक्य में जो पद होते हैं वाक्यार्थ के मूल कारण वे ही हैं। न्यायमंजरी में पदों में दो प्रकार की शक्ति मानी गई है—प्रथम अभिधात्री शक्ति जिससे एक एक पद अपने अपने अर्थ का बोध कराता है और दूसरी तात्पर्य शक्ति जिससे कई पदों के संबंध का अर्थ सूचित होता है। शक्ति के अतिरिक्त लक्षणा भी नैयायिकों ने मानी है। आलंकारिकों ने तीसरी वृत्ति व्यंजना भी मानी है पर नैयायिक उसे पृथक् वृत्ति नहीं मानते। सूत्र के अनुसार जिन कई अक्षरों के अंत में विभक्ति हो वे ही पद हैं और विभक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं—नाम विभक्ति और आख्यात विभक्ति। इस प्रकार नैयायिक नाम और आख्यात दो ही प्रकार के पद मानते हैं। अव्यय पद को भाष्यकार ने नाम के ही अंतर्गत सिद्ध किया है। न्याय में ऊपर लिखे चार ही प्रमाण माने गए हैं। मीमांसक और वेदांती अर्थापत्ति, ऐतिह्य, संभव और अभाव ये चार और प्रमाण कहते हैं। नैयायिक इन चारों को अपने चार प्रमाणों के अंतर्गत मानते हैं।

अर्थापत्ति

दृष्ट या श्रुत विषय की उपपत्ति जिस अर्थ के बिना न हो, उस अर्थ के ज्ञान को 'अर्थापत्ति' कहते हैं। जैसे--देवदत्त दिन में कुछ भी नहीं खाता, फिर भी खूब मोटा है'। इस वाक्य में 'न खाना तथापि मोटा होना' इन दोनों कथनों में समन्वय की उपपत्ति नहीं होती। अत: उपपत्ति के लिए 'रात्रि में भोजन करता है' यह कल्पना की जाती है। इस कथन से यह स्पष्ट हो गया कि 'यद्यपि दिन में वह नहीं खाता, परन्तु रात्रि में खाता है'। अतएव देवदत्त मोटा है। यहाँ पर प्रथम वाक्य में उपपत्ति लाने के लिए, 'रात्रि में खाता है' यह कल्पना स्वयं की जाती है। इसी को 'अर्थापत्ति' कहते हैं।

अर्थापत्ति के भेद

यह दो प्रकार की है--'दृष्टार्थापत्ति', जैसे --ऊपर के उदाहरण में, तथा 'श्रुतार्थापत्ति' । जैसे- सुनने में आता है कि देवदत्त जो जीवित है, घर में नहीं हैं। इस से 'देवदत्त कहीं और स्थान में है' इसकी कल्पना करना 'अर्थापत्ति' है। अन्यथा 'जीवित होकर घर में नहीं रहना' इन दोनों बातों में समन्वय नहीं हो सकता।
प्रभाकर का मत है कि किसी भी प्रमाण से ज्ञात विषय की उपपत्ति के लिए 'अर्थापत्ति' हो सकती है, केवल दृष्ट और श्रुत ही से नहीं। यह बात साधारण रूप से प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता, तस्मात् 'अर्थापत्ति' का नाम का एक भिन्न 'प्रमाण' मीमांसक मानते हैं।

अनुपलब्धि या अभाव

अभावप्रमाण -- प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के द्वारा जब किसी वस्तु का ज्ञान नहीं होता, तब 'वह वस्तु नहीं है' इस प्रकार उस वस्तु के 'अभाव' का ज्ञान हमें होता है। इस 'अभाव' का ज्ञान इन्द्रियसन्निकर्ष आदि के द्वारा तो हो नहीं सकता, क्योंकि इन्द्रियसन्निकर्ष 'भाव' पदार्थों के साथ होता है। अतएव 'अनुपलब्धि', या 'अभाव' नाम के एक ऐसे स्वतन्त्र प्रमाण को मीमांसक मानते हैं, जिसके द्वारा किसी वस्तु के 'अभाव' का ज्ञान हो। यह तो मीमांसकों का एक साधारण मत है। किन्तु प्रभाकर इसे नहीं स्वीकार करते। उनका कथन है कि जितने 'प्रमाण' है, सब के अपने-अपने स्वतन्त्र 'प्रमेय' हैं, किन्तु 'अभाव' प्रमाण का कोई भी अपना 'विषय' नहीं है। जैसे--'इस भूमि पर घट नहीं है', इस ज्ञान में यदि वहाँ घट होता, तो भूतल के समान उसका भी ज्ञान होता, किन्तु ऐसा नहीं है। फिर हम देखते हैं 'केवल भूमि', जिस का ज्ञान हमें प्रत्यक्ष से होता है। वस्तुत: 'अभाव' का अपना स्वरूप तो कुछ भी नही है। वह तो जहाँ रहता है, उसी आधार के साथ कहा जाता है। इसलिए यथार्थ में भूतल के ज्ञान के अतिरिक्त 'घट नहीं है' इस प्रकार का ज्ञान होता ही नहीं। अतएव 'अभाव' अधिकरण स्वरूप ही है। इस का पृथक् अस्तित्व नहीं है।

सम्भवप्रमाण

कुमारिल ने 'सम्भव' की चर्चा की है। जैसे--'एक सेर दूध में आधा सेर दूध तो अवश्य है'; अर्थात् एक सेर होने में सन्देह हो सकता है, किन्तु उसके आधा सेर होने में तो कोई भी सन्देह नहीं हो सकता। इसे ही 'सम्भव' का नाम का प्रमाण 'पौराणिकों' ने माना है। कुमारिल ने इस 'अनुमान' के अन्तर्गत माना है।

ऐतिह्यप्रमाण

'एतिह्य' का भी उल्लेख कुमारिल ने किया है। जैसे 'इस वट के वृक्ष पर भूत रहता है'। यह वृद्ध लोग कहते आये हैं। अत: यह भी एक स्वतन्त्र प्रमाण है। परन्तु इस कथन की सत्यता का निर्णय नहीं हो सकता, अतएव यह प्रमाण नहीं है। यदि प्रमाण है तो यह 'आगम' के अन्तर्भूत है। किन्तु इन दोनों को अन्य मीमांसकों की तरह कुमारिल ने भी स्वीकार नहीं किया।

प्रतिभाप्रमाण

'प्रतिभा' अर्थात् 'प्रातिभज्ञान' सदैव सत्य नहीं होता, अतएव इसे भी मीमांसक लोग प्रमाण के रूप में नहीं स्वीकार करते।
ऊपर के विवरण से स्पष्ट हो गया होगा कि प्रमाण ही न्यायशास्त्र का मुख्य विषय है। इसी से 'प्रमाणप्रवीण', 'प्रमाणकुशल' आदि शब्दों का व्यवहार नैयायिक या तार्किक के लिये होता है।

प्रमेय

प्रमाण का विषय (जिसे प्रमाणित किया जाय) प्रमेय कहलाता है। ऐसे विषय न्याय के अन्तर्गत बारह गिनाए गए हैं—
  • (१) आत्मा—सब वस्तुओं का देखनेवाला, भोग करनेवाला, जाननेवाला और अनुभव करनेवाला।
  • (२) शरीर—भोगो का आयतन या आधार।
  • (३) इंद्रियाँ—भोगों के साधन।
  • (४) अर्थ—वस्तु जिसका भोग होता है।
  • (५) बुद्धि—भोग।
  • (६) मन—अंतःकरण अर्थात् वह भीतरी इंद्रिय जिसके द्वारा सब वस्तुओं का ज्ञान होता है।
  • (७) प्रवृत्ति—वचन, मनऔर शरीर का व्यापार।
  • (८) दोष—जिसके कारण अच्छे या बुरे कामों में प्रवृत्ति होती है।
  • (९) प्रेत्यभाव—पुनर्जन्म।
  • (१०) फल—सुख दुःख का संवेदन या अनुभव।
  • (११) दुःख—पीडा़, क्लेश।
  • (१२) अपवर्ग—दुःख से अत्यंत निवृत्ति या मुक्ति।
इस सूची से यह न समझना चाहिए कि इन वस्तुओं के अतिरिक्त और प्रमेय (प्रमाण के विषय) हो ही नहीं सकते। प्रमाण के द्वारा बहुत सी बातें सिद्ध की जाती हैं। पर गौतम ने अपने सूत्रों में उन्हीं बातों पर विचार किया है जिनके ज्ञान से अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति हो। न्याय में इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख दुःख और ज्ञान ये आत्मा के लिंग (अनुमान के साधन चिह्न या हेतु) कहे गए हैं, यद्यपि शरीर, इंद्रिय और मन से आत्मा पृथक् मानी गई है। वैशेषिक में भी इच्छा, द्वेष सुख, दुःख आदि को आत्मा का लिंग कहा है। शरीर, इंद्रिय और मन से आत्मा के पृथक् होने के हेतु गौतम ने दिए हैं। वेदांतियों के समान नैयायिक एक ही आत्मा नहीं मानते, अनेक मानते हैं। सांख्यवाले भी अनेक पुरुष मानते हैं पर वे पुरुष को अकर्ता और अभोक्ता, साक्षी वा द्रष्टा मात्र मानते हैं। नैयायिक आत्मा को कर्ता, भोक्ता आदि मानते हैं। संसार को रचनेवाली आत्मा ही ईश्वर है। न्याय में आत्मा के समान ही ईश्वर में भी संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, इच्छा, बुद्धि प्रयत्न ये गुण माने गए हैं पर नित्य करके। न्यायमंजरी में लिखा है कि दुःख, द्वेष और संस्कार को छोड़ और सब आत्मा के गुण ईश्वर में हैं।
बहुत से लोग शरीर को पाँचों भूतों से बना मानते हैं पर न्याय में शरीर केवल पृथ्वी के परमाणुओं से घटित माना गया है। चेष्टा, इंद्रिय और अर्थ के आश्रय को शरीर कहते हैं। जिस पदार्थ से सुख हो उसके पाने और जिससे दुःख हो उसे दूर करने का व्यापार चेष्टा है। अतः शरीर का जो लक्षण किया गया है उसके अंतर्गत वृक्षों का शरीर भी आ जाता है। पर वाचस्पति मिश्र ने कहा है कि यह लक्षण वृक्षशरीर में नहीं घटता, इससे केवल मनुष्यशरीर का ही अभिप्राय समझना चाहिए। शंकर मिश्र ने वैशेषिक सूत्रोपस्कार में कहा है कि वृक्षों को शरीर है पर उसमें चेष्टा और इंद्रियाँ स्पष्ट नहीं दिखाई पड़तीं इससे उसे शरीर नहीं कह सकते। पूर्वजन्म में किए कर्मों के अनुसार शरीर उत्पन्न होता है। पाँच भूतों से पाँचों इंद्रियों की उत्पत्ति कही गई है। घ्राणेंद्रिय से गंध का ग्रहण होता है, इससे वह पृथ्वी से बनी है। रसना जल से बनी है क्योकि रस जल का ही गुण है। चक्षु तेज से बना हैं क्योकि रूप तेज का ही गुण है। त्वक् वायु से बना है क्योंकि स्पर्श वायु का गुण है। श्रोत्र आकाश से बना है क्योंकि शब्द आकाश का गुण है। बौद्धों के मत से शरीर में इंद्रियों के जो प्रत्यक्ष गोलक देखे जाते हैं उन्हीं को इंद्रियाँ कहते हैं। (जैसे, आँख की पुतली, जीभ इत्यादि); पर नैयायिकों के मत से जो अंग दिखाई पड़ते हैं वे इंद्रियों के अधिष्ठान मात्र हैं, इंद्रियाँ नहीं हैं। इंद्रियों का ज्ञान इँद्रियों द्वारा नहीं हो सकता। कुछ लोग एक ही त्वग् इंद्रिय मानते हैं। न्याय में उनके मत का खंडन करके इंद्रियों का नानात्व स्थापित किया गया है। सांख्य में पाँच कर्मेद्रियाँ और मन लेकर ग्यारह इंद्रियाँ मानी गई हैं। न्याय में कर्मेंद्रियाँ नहीं मानी गई हैं पर मन एक करण और अणुरूप माना गया है। यदि मन सूक्ष्म न होकर व्यापक होता तो युगपद ज्ञान संभव होता, अर्थात् अनेक इंद्रियों का एक क्षण में एक साथ संयोग होने से उन सबके विषयों का एक साथ ज्ञान होता। पर नैयायिक ऐसा नहीं मानते। गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द ये पाँचों भूतों के गुण और इंद्रियों के अर्थ या विषय़ हैं।
न्याय में बुद्धि को ज्ञान या उपलब्धि का ही दूसरा नाम कहा है। सांख्य में बुद्धि नित्य कही गई है पर न्याय में अनित्य। वैशेषिक के समान न्याय भी परमाणुवादी है अर्थात् परमाणुओं के योग से सृष्टि मानता है।
प्रमेयों के संबंध में न्याय और वैशेषिक के मत प्रायः एक ही हैं इससे दर्शन में दोनों के मत न्याय मत कहे जाते हैं। वात्स्यायन ने भी भाष्य में कह दिया है कि जिन बातों को विस्तार-भय से गौतम ने सूत्रों में नहीं कहा है उन्हें वैशेषिक से ग्रहण करना चाहिए।
ऊपर जो कुछ लिखा गया है उससे प्रकट हो गया होगा कि गौतम का न्याय केवल विचार या तर्क के नियम निर्धारित करनेवाला शास्त्र नहीं है बल्कि प्रमेयों का भी विचार करनेवाला दर्शन है। पाश्चात्य लाजिक (तर्कशास्त्र) से यही इसमें भेद हैं। लाजिक, दर्शन के अंतर्गत नहीं लिया जाता पर न्याय, दर्शन है। यह अवश्य है कि न्याय में प्रमाण या तर्क की परीक्षा विशेष रूप से हुई है।

प्रामाण्यवाद का महत्व

न्यायशास्त्र तथा मीमांसाशास्त्र में 'प्रामाण्यवाद' सब से कठिन विषय कहा जाता है। मिथिला में विद्वन्मण्डली में प्रसिद्ध है कि १४वीं सदी में एक समय एक बहुत बड़े विद्वान् और कवि किसी अन्य प्रान्त से मिथिला के महाराज की सभा में आये। उनकी कवित्वशक्ति और विद्वत्ता से सभी चकित हुए। वह मिथिला में रह कर 'प्रामाण्यवाद' का विशेष अध्ययन करने लगे। कुछ दिनों के पश्चात् महाराज ने उनसे एक दिन नवीन कविता सुनाने के लिए कहा, तो बहुत देर सोचने के बाद उन्होने एक कविता की रचना की--
नम: प्रामाण्यवादाय मत्कवित्वापहारिणे'।
इसकी दूसरी पंक्ति की पूर्ति करने में उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट की। वास्तव में 'प्रामाण्यवाद' बहुत कठिन है और इसके अध्ययन करने वालों का ध्यान और कहीं नहीं जा सकता है।

Tuesday, August 7, 2018

योगका व्यावहारिक रूप है संस्कृत भाषा के रहस्य -शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

दुनिया की पहली पुस्तक की भाषा होने के कारण संस्कृत भाषा को विश्व की प्रथम भाषा मानने में कहीं कोई संशय की गुंजाइश नहीं हैं।इसके सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण सर्वश्रेष्ठता भी स्वयं सिध्द है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य की धनी हाने से इसकी महत्ता भी निर्विवाद है। इतना सब होने के बाद भी बहुत कम लोग ही जानते है कि संस्कृत भाषा अन्य भाषाओ की तरह केवल अभिव्यक्ति का साधन मात्र ही नहीं है; अपितु वह मनुष्य के सर्वाधिक संपूर्ण विकास की कुंजी भी है। इस रहस्य को जानने वाले मनीषियों ने प्राचीन काल से ही संस्कृत को देव भाषा और अम्रतवाणी के नाम से परिभाषित किया है। संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं वल्कि संस्कारित भाषा है इसीलिए इसका नाम संस्कृत है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं वल्कि महर्षि पाणिनि; महर्षि कात्यायिनि और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है । जिस प्रकार साधारण पकी हुई दाल को शुध्द घी में जीरा; मैथी; लहसुन; और हींग का तड़का लगाया जाता है;तो उसे संस्कारित दाल कहते हैं। घी ; जीरा; लहसुन, मैथी ; हींग आदि सभी महत्वपूर्ण औषधियाँ हैं। ये शरीर के तमाम विकारों को दूर करके पाचन संस्थान को दुरुस्त करती है।दाल खाने वाले व्यक्ति को यह पता ही नहीं चलता कि वह कोई कटु औषधि भी खा रहा है; और अनायास ही आनन्द के साथ दाल खाते-खाते इन औषधियों का लाभ ले लेता है।
ठीक यही बात संस्कारित भाषा संस्कृत के साथ सटीक बैठती है।जो भेद साधारण दाल और संस्कारित दाल में होता है ;वैसा ही भेद अन्य भाषाओं और संस्कृत भाषा के बीच है।संस्कृत भाषा में वे औषधीय तत्व क्या है ? यह जानने के लिए विश्व की तमाम भाषाओं से संस्कृत भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है।
संस्कृत में निम्नलिखित चार विशेषताएँ हैं जो उसे अन्य सभी भाषाओं से उत्कृष्ट और विशिष्ट बनाती हैं।
१ अनुस्वार (अं ) और विसर्ग(अ:)
सेस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभ दायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं —
यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि।
और
नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं—
यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि।
अब जरा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं।
उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भौंरे की तरह गुंजन करना होता है, और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जावेगा।
कपालभाति और भ्रामरी प्राणायामों से क्या लाभ है? यह बताने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्वामी रामदेव जी जैसे संतों ने सिद्ध करके सभी को बता दिया है। मैं तो केवल यह बताना चाहता हूँ कि संस्कृत बोलने मात्र से उक्त प्राणायाम अपने आप होते रहते हैं।
जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- '' राम फल खाता है``
इसको संस्कृत में बोला जायेगा- '' राम: फलं खादति"
राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं। यही संस्कृत भाषा का रहस्य है।
संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों। अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना।
२- शब्द-रूप
संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप। विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है,जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं। जैसे राम शब्द के निम्नानुसार 25 रूप बनते हैं।
यथा:- रम् (मूल धातु)
राम: रामौ रामा:
रामं रामौ रामान्
रामेण रामाभ्यां रामै:
रामाय रामाभ्यां रामेभ्य:
रामत् रामाभ्यां रामेभ्य:
रामस्य रामयो: रामाणां
रामे रामयो: रामेषु
हे राम! हेरामौ! हे रामा:!
ये 25 रूप सांख्य दर्शन के 25 तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिस प्रकार पच्चीस तत्वों के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है। और इन 25 तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को प्राप्त होने लगती है।
सांख्य दर्शन के 25 तत्व निम्नानुसार हैं।-
आत्मा (पुरुष)
(अंत:करण 4 ) मन बुद्धि चित्त अहंकार
(ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण
(कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्
(तन्मात्रायें 5) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द
( महाभूत 5) पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश
३- द्विवचन
संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन। सभी भाषाओं में एक वचन और बहु वचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है।
जैसे :- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं:- रामौ , रामाभ्यां और रामयो:। इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध ,उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।
४ सन्धि
संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। ये संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।ऐंसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।
''इति अहं जानामि" इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।
यथा:- १ इत्यहं जानामि।
२ अहमिति जानामि।
३ जानाम्यहमिति ।
४ जानामीत्यहम्।
इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है। जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं नीरोग हो जाता है।
इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं ,अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है। यह वह भाषा है, जिसके उच्चारण करने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो सकता है। इसीलिए इसे देवभाषा और अमृतवाणी कहते हैं।

कर्मचारी र शेयर कारोबार

कर्मचारीले कारोबार गर्न पाउँछन् कि पाउँदैनन् ?   प्रतिभूति (शेयर) बजार पैसा छाप्ने मेशिन हो भन्ने एक किसिमको भाष्य बनेको छ । यथार्थमा यस्तो ...