ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ईशवास्योपनिषद का उपरोक्त मंत्र भारतीय अध्यात्मवाद एवम् दर्शन की पराकाष्ठा है। प्रायः माना जाता है कि विज्ञान को प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सकता है जबकि अध्यात्म भावनाओं पर आधारित है। वस्तुतः अध्यात्म प्रकृति से बाहर का विचार नहीं है। सूक्ष्म मन में स्थूल संसार के उदाहरणों से ही भाव जन्म लेते हैं। उपरोक्त मंत्र के शब्दानुवाद पर विचार करें। पूर्ण से पूर्ण जाने के बाद पूर्ण शेष रहना क्या संभव है?...जी हाँ, ये संभव है, यह हम नहीं शास्त्रसिद्ध गणित कहता है। अब इस मंत्र को पढ़ते समय शून्य को सामने रखें। शून्य को शून्य में शून्य जोड़ने से योगफल शून्य ही आता है। किसी भी अंक से शून्य का निरसन करने या घटाने पर वही अंक शेष रहता है। शून्य को शून्य से गुणा करने पर उत्तर शून्य आता है। शून्य की महत्ता है कि शून्य को शून्य से विभक्त ( भाग) किया ही नहीं जा सकता। अतः सिद्ध होता है कि स्थूल जगत, भाव जगत में प्रतिबिम्बित होता है। द्वैत और अद्वैत, विज्ञान और अध्यात्म के संगम के अद्भुत उदाहरण शून्य पर पूर्ण चर्चा का प्रयास कर संपूर्ण सत्य के मार्ग का अनुशीलन करने का यह टिटिहरी यत्न है।
शून्य का आविष्कार भारत में हुआ था। सत्य तो ये है कि यह भारत में ही संभव था। आविष्कार यकायक या ‘बाइचांस’ नहीं होते। ‘बाइचांस’ तो डिस्कवरी होती है। आविष्कार के लिए प्रदीर्घ परंपरा, अखण्डित चिंतन, निरंतर मंथन चाहिए। भारत जानता था ब्रह्मांड की ‘इनफिनिटी’, अतः स्वाभाविक था कि शून्य का ज्ञान यहीं से उद्घोषित होता। शून्य गणितीय मान पद्धति या वैल्यू सिस्टम में अपरिहार्य है। इसे संख्या के रूप में स्वीकार किया गया है। वस्तुतः संख्या प्रणाली शून्य के बिना अधूरी है। भारतीय संख्या शास्त्र में 1019 (महाशंख) से 10140 (असंख्येय)तक का उल्लेख मिलता है। ‘असंख्येय’ शब्द का उल्लेेख ये संकेत करता है कि (10139 ) तक की संख्या तत्कालीन भारतीय गणितज्ञों को ज्ञात थी। आर्यभट्ट का किसी संख्या का दस गुना प्राप्त करने के लिए उसके आगे शून्य रखो (स्थानं स्थानं दशं गुणम्) का सिद्धांत सर्वविदित है। ब्रह्मगुप्त के गणितीय सिद्धांतों का अध्ययन करते समय यह देखने में आता है कि उन्होंने बीजगणित एवम् ॠणात्मक संख्याओं का उपयोग भी किया हैअर्थात शून्य के अस्तित्व से हम भली भाँति परिचित थे।
‘ॠणात्मक संख्या’गणित का एक टर्म भर है। चिंतन प्रतिपादन करता है कि संख्या धनात्मक या ॠणात्मक नहीं होती। संख्यारेखा पर शून्य को संतुलन माना जाता है। शून्य से पहले माइनस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। वस्तुतः संख्या संतुलन के दाईं ओर बढ़े या बाईं ओर, उसका विस्तार तो अपरिमित है। दायाँ-बायाँ तो केवल दिशाओं को दर्शाता है। अपरिमेय को दिशाओं से क्या लेना देना। कहीं से भी आरंभ करें, आवश्यक है आरंभ करना। फिर ‘इनडिटरमिनेेंंट’ को दिशाएँ नियंत्रित भी कैसे कर सकती हैं?
वैज्ञानिक सत्य है कि शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल,पात्र,परिस्थिति अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक सीमा के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।
वस्तुतः हम वही देखते हैं जो देखना चाहते हैं। हमारी दृष्टि का, हमारे चिंतन का परिणाम है आभास। महान गणितज्ञ पाइथागोरस संख्याओं में विश्व को देखते थे। उनका मानना था कि दुनिया संख्याओं का खेल है। संसार आभासी है। शून्य भी आभासी हैपर शून्य के बिना संख्याशास्त्र का भास हो ही नहीं सकता। संसार को जाने बिना भवसागर पार नहीं हो सकता। मनुष्य तैरता है, तिरता नहीं। तिरना याने संसार में रहकर संसारिकता के भाव और उससे उपजे भार से मुक्त रहना। जिस पदार्थ का द्रव्यमान तुलनात्मक रूप से भारहीन हो जाए, वह तिरने लगता है। जो तिरने लगता है, वह शून्य होने लगता है। शून्य विस्तार है, शून्य सार है, भले ही प्रतीत होता असार है।
शून्य को अस्तित्वहीन कहा जाता है पर गोलाकार चित्रित किया जाता है। हम रसायनशास्त्र में किसी पदार्थ के परिचय में ‘इसकी गंध गंधहीन होती है/ ‘इसका रंग रंगहीन होता है’ लिखते हैं। ये भी तो हो सकता है कि वर्तमान में हमारी आँखें इसके रंग को देख न पा रही हों, हमारी घ्राण शक्ति इसे सूँघ न पा रही हो। निराकार में भी मूल शब्द ‘आकार’ ही होता है। यही कारण रहा होगा कि शून्य को गोलाकार चित्रित करने का चलन हुआ।
इस चित्रण के पीछे मानस में बसी परंपराएँ तथा लोकजीवन और सांस्कृतिक मूल्य भी हैं। ब्रह्मांड को सनातन ग्रंथों ने गोलाकार बताया है। जीवन को हमारी संस्कृति ने परिक्रमा कहा है। परिक्रमा गोलाकार होती है। पूर्वजन्म से पुनर्जन्म तक की अवधारणा यों ही नहीं उपजी। वृत्त में दोनों को स्थान है।
उपरोक्त श्लोक का एक अर्थ ये भी है कि पूर्णता और शून्यता पर्यायवाची हैं। जगत संभावनाओं का गणित है। ध्यान दें कि यहाँ आशंका नहीं अपितु संभावना शब्द प्रयुक्त हुआ है। संभावना आशा का प्रतीक है, आशंका अनिष्ट का संकेत करती है। पूर्णता और शून्यता को समझने के लिए पार्थसारथी श्रीकृष्ण और पार्थ अर्जुन का उदाहरण लिया जा सकता है। श्रीकृष्ण ज्ञान के प्रतीक हैं जबकि अर्जुन जड़ता का। ज्ञानी संसार की असारता को समझता है, अतः संसार को शून्य मानता है। अज्ञानी बिना समझे ही संसार को शून्य माने बैठा होता है। मानते दोनों ही शून्य हैं। प्रश्न ये भी उठ सकता है कि दोनों का निष्कर्ष एक-सा है तो ज्ञानी या अज्ञानी कैसे निरूपित किया जा सकता है। विचार तो ये भी हो सकता है कि क्या अनंत होना पूर्ण होना है? यदि हाँ तो अनंत परमात्मा पूर्ण है किंतु पूर्ण तो शून्य है। ऐसे में सहज प्रश्न उठ सकता है कि क्या शून्य ही परमात्मा तत्व है? खगोलविज्ञान ब्लैक होल का उल्लेेख करता है। इस होल का अता-पता नहीं होता। केवल इतना पता होता है कि इसने जिसको गड़प लिया उसका पता -ठिकाना नहीं मिलता। इसके विशद और तार्किक विवेचन के लिए ही तो योगेश्वर ने गीता कही थी। जानकर जानना और अनजाने में जानना, दोनों में बहुत अंतर है। ज्ञानयोग इसी अंतर को समझने का मार्ग है।
हम शून्य कभी नहीं होते। रीतना, चरम कभी नहीं होता। भरना भी चरम नहीं होता। शून्यता उत्पादक होती है। जिन्हें शून्य अंत लगता है, उनके लिए भी शून्य आवश्यक है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस सोपान के बाद खोने के लिए कुछ नहीं बचता। जब खोने का भय नहीं होता तो मनुष्य उन्मुक्त होकर कर्तव्य का निर्वाह करता है, कर्म का आनंद लेता है, सफल होता है। उदाहरणार्थ-किसी भी खेल में श्रृृंखला हार चुकी टीम सामान्यतः अंतिम मैच जीत लेती है क्योंकि वह स्वाभाविक आनंद से खेलती है और खोने के लिए कुछ शेष नहीं होता। श्रृृंखला जीत चुकी टीम भी वांछित पा चुकी होती है, फलतः कुछ खोती नहीं । एक अर्थ में देखें तो रेखा के दोनों ओर खोने के लिए कुछ भी नहीं है अपितु कुछ पाने की ही संभावना है। शून्य चिता नहीं किलकारी है। शून्य अंतिम नहीं प्रथम संस्कार है। मेरे एक मित्र का मानना है कि यदि हम कुएँ में गिर पड़े तब भी कपड़े गीले करके ही निकलेंगे। यही गीलापन उपलब्धि है। पाना भी दृष्टि में है, खोना भी दृष्टि में है।
एक अवस्था होती है जब मनुष्य को लगता है कि उसके पास कुछ नहीं है। एक अन्य अवस्था में वह स्वयं को ‘सब कुछ’ संपन्न समझने लगता है। ‘कुछ नहीं‘ और ‘सब कुछ’ जीवन के दो छोर हैं। जीवन वृत्ताकार है, अतः छोर अलग- अलग नहीं हो सकते अर्थात जो आरंभ बिंदु है, वही समापन भी है। आदि और अंत का एकाकार याने ‘सब कुछ’ और ‘कुछ नहीं’एक समान हैं, ‘एवरीथिंग इस इक्वल टू नथिंग।’
बौद्ध मत की महायान शाखा में एक विभाग है-माध्यमिक। माध्यमिक विभाग का विश्वास है कि संसार शून्य है और उसके सभी पदार्थ सत्ताहीन। यहाँ आस्ति-नास्ति से मुक्त होना शून्य होना है। पंडित शून्य की आशा करते हैं, उसका निषेध नहीं करते। गणित में तो शून्य लगाने से संख्या का विस्तार होता है। हम जीवन की सनातन शून्यता को समझने, उसका गणित करने के बजाय, गणित के सिद्धांत लागू कर नश्वर के आगे शून्य बढ़ाने के प्रयास में जुटे रहते हैं। ज्ञानी मनुष्य जाति का यह अज्ञान उसे हास्यास्पद कर रहा है।
शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी, प्रकृति सब चक्राकार हैं, वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता के चलते केंद्र बनने की संभावना है।
शून्य में गहन तृष्णा है, शून्य में गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी। शून्य के उत्सव को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ। शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें। शून्य आदि है, शून्य इति है। शून्य से आरंभ, शून्य पर अंत अर्थात शून्यादि-शून्यिति। इस मर्म को जानते-बूझते हुए भी मनुष्य शून्य क्यों है, यह विचारणीय है।
एक हिन्दी पत्रिकाबाट
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