आदि-रामायण के कविर्मनीषी वाल्मीकि ने अपनी
कृति के नायक राम के समकक्ष प्रतिनायक रावण के व्यक्तित्वका चित्रण करने में कोई
कसर नहीं छोड़ी है. उन्होंने युद्धकाण्डमें उसके शरीर को गिरिराज हिमालय और विन्ध्याचल
के समान बताया है. वह स्थान-स्थान पर उसे घनघोर वर्षा कराने वाले जल से लबालब नील
मेघ के समान विशाल देहका स्वामी कहते हैं. रावण को
सुन्दरकाण्ड (8.22) में उन्होंने ‘मुखान्महान्’ और ‘महाभुजशिरोधरः’ (20.24) अर्थात्
‘बड़े मुँह’, ‘बड़ी
भुजाओं’ तथा ‘बड़ी गरदन वाला’ भी कहा है. यदि ऐसे विकट व्यक्तित्वके धनी भक्तका आराध्य और उसकी आराधना
के शब्द विलक्षण हों तो अचरज कैसा?
रावणका शिवताण्डव स्तोत्र भक्ति-भावसे भरपूर और
ऊर्जस्वी शैलीमें निबद्ध उत्कृष्ट गेय रचना है. इसके सामासिक अनुनादी स्वरोंकी
जादुई कुव्वत श्रोताको मन्त्रमुग्ध करके ही छोड़ती है. इसे संगीतबद्ध रूप में
सुनते हैं तो लगता है जैसे स्वयं महाप्राण निराला ‘राम की शक्ति-पूजा’ का पाठ कर रहे हों. यहाँ
हम इस संस्कृत काव्य-रचना के मूर्तिमय मूल भावों (Motifs) का विश्लेषण करते हुए
इसके रचना-काल पर विचार करेंगे.
मान्यता है कि महादेव शिव के अनन्य भक्त
महाबली रावण ने अपनी कठिन तपस्या के समापन चरण के रूप में भगवान शिव की स्तुति में
शिवताण्डव स्तोत्र के यही स्वरचित बारह श्लोक गाए थे:
पूजाsवसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शम्भुपूजनमिदं पठति प्रदोषे.
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः .
इनमें से पहला श्लोक भगवान शिव की
गंगाधरमूर्ति का शब्द-चित्र प्रस्तुत करता है:
जटाकटाह
सम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि.
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम .1
यही श्लोक भगवान के ललाट पर सुशोभित अदम्य अग्नि-ज्वाला से दैदीप्यमान
तृतीय नेत्र का गुणगान करता है. शिव त्रिनेत्र-त्र्यम्बक देवता हैं. उनके तीन
नेत्र हैं सूर्य-चन्द्र-अग्नि. इन त्रिदेव के भीतर सम्पूर्ण त्रिक सिद्धान्त
समाहित है.
यह श्लोक भगवान शिव की चन्द्रशेखर संज्ञा में
उनके ललाट पर खिले हुए नव-चन्द्र का भी उल्लेख करता है. कौन है यह चन्द्र ? अग्निर्वै रुद्रः यह
इसकी वैदिक परिभाषा है. रुद्र है प्रचण्ड अग्नि. अपने भोज्य को लील जाने को बेताब.
इस अग्नि की भूख मिटती है सोम से. इसी सोम को चन्द्र और अमृत भी कहते हैं. फिर, चन्द्र है
ब्रह्माण्ड-मनस का प्रतिनिधि भी–-चन्द्रमा मनसो जातः (ऋग्वेद)— और मानस-सिद्धान्त
ही है शिव रूप का सर्वोपरि पहलू-–उनके भाल-शीर्ष पर दीप्तिमान.
दूसरा श्लोक शिव के
उमा-महेश्वर रूप पर केन्द्रित है. पर्वत-पुत्री अपने स्वामी के साथ शाश्वत परम आनन्द
में लीन रहती हैं:
धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्तति
प्रमोदमानमानसे.
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिच्चिदम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि
.2
लिंगपुराण स्पष्ट करता है
कि यह प्रकृति का पुरुष के साथ, सोम का अग्नि के साथ एकायन है:
अहमग्निर्महातेजाः
सोमश्चैषा महाम्बिका. अहमग्निश्च सोमश्च प्रकृत्या पुरुषः स्वयम्. (34.7)
शिव की स्तुति यहाँ
चिदम्बर अर्थात् चिदाकाश के रूप में की गई है. यह चितितत्व का स्रोत है. चेतना का
सिद्धान्त. इसीको प्रज्ञात्मक प्राण भी कहा गया है. वेदान्तिक शैव दर्शन का यह
सर्वोच्च सिद्धान्त है, जिसमें अद्वैत हैं शिव और आत्मभाव.
तीसरे श्लोक में दो मूल
भाव समाहित हैं: शिव के जटाजूट में कुण्डलित भुजंग तथा महादेव को ताण्डव नृत्य के
लिए उद्धत जताने के उद्देश्य से कन्धे से कटि प्रदेश तक उत्तरीय की नाईं तिरछे धारण
किया हुआ गज-चर्म:
जटभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे.
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनोविनोदमद्भुतं बिभुर्त भूतभर्तरि .3
यहाँ गजराज के रूप में है अहम्
या व्यष्टीयन का सिद्धान्त, ठीक वैसे ही जैसे एक बिन्दु विशेष
पर महत् का अवतरण. गज-चर्म का खोल है अहम् का धारक, अहम् को अनुशासित-मर्यादित
करने वाली दृढ़-स्थूल बाड़. यही है विश्व-सृजन के नृत्य का
समारम्भ और समाहार की उत्प्रेरक.
चौथे श्लोक में सहस्रलोचन
इन्द्र की अगुआई में महादेव शिव के चरणों में श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए अनेक
देवता उपस्थित हैं:
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखरप्रसूनधूलिधोरणीविधूसराङ्घ्रिपीठभूः.
भुजङ्गराजमालया
निबद्धजटाजूटकः श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः
.4
वेद में सहस्रों किरणों के
स्वामी सूर्य के रूप में इन्द्र और रुद्र दो अलग-अलग देवता नहीं, एक ही हैं.
पाँचवाँ श्लोक शिव के
तृतीय नेत्र से प्रस्फुटित अग्नि का चित्रण करता है:
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुल्लिङ्गभानिपीतपञ्चसायकं
नमन्निलिम्पनायकम्.
सुधामयूखलेखया
विराजमानशेखरं महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु नः
.5
यह पंचशरधारी कामदेव की
इहलीला समाप्त कर देने वाली अग्नि है और है शिव की कामान्तक मूर्ति. पाँचों प्रकार
के ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा का परिपूर्ण दमन शिव की तपःसमाधि से हो जाता है.
छठा श्लोक शिव की कामान्तक
मूर्ति को और अधिक कलात्मक रूप में प्रस्तुत करता है:
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनञ्जयाधरीकृतप्रचण्डपञ्चसायके.
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनि
त्रिलोचने मतिर्मम .6
यह तृतीय नेत्र प्रज्ञा ही
है, जो इन्द्रियों और विषय-वासनाओं के पीछे भागने वाले चित्त पर पूर्ण नियन्त्रण
पा लेती है.
सातवाँ श्लोक नीलकण्ठ के
रूप में शिव के गंगाधर, गजान्तक और चन्द्रशेखर रूपों का
स्मरण करता है:
नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहूनिशीथिनीतमः
प्रबन्धबन्धुकन्धरः.
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु
कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः
.7
शब्द गुण युक्त आकाश का
प्रतीक है कण्ठ. यही आकाश वैदिक पारिभाषिक शब्दावली में पंचभूत या वाक् का समकक्ष
है. कण्ठस्थ गरल पंचभूत की तामसिक प्रकृति का प्रतीक है. इन पंचभूतों की सृष्टि
सत्, रज और तमोगुण से होती है: तमोगुण रूप से शक्ति,
रजोगुण रूप से प्राण और सतोगुण रूप से मनस्तत्व. इसी प्रकार त्रैगुण्य के मूर्त रूप
हैं मनः-प्राण-वाक्.
आठवाँ श्लोक फिर एक बार
नीलोत्पल की भाँति कान्तिमान घने-गहरे नीलांजन कण्ठ जन्य सुरमई प्रभावों का वर्णन
करता है. इस श्लोक का उत्तरार्ध अत्यन्त महत्वपूर्ण है. यह शिवलीला के मूल भावों
की लड़ी जो प्रस्तुत करता है:
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमच्छटाविडम्बिकण्ठकन्धरारुचिप्रबन्धकन्धरम्.
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदाsन्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे .8
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमच्छटाविडम्बिकण्ठकन्धरारुचिप्रबन्धकन्धरम्.
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदाsन्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे .8
स्तोत्र साहित्य के कण्ठ में इस शब्दमाला का बारम्बार
सिर चढ़कर बोलने वाला घनगरज जादू सचमुच बेजोड़ है. शिवलीला के प्रतिफल का चित्रण इससे
ज़्यादा कसे हुए रूप में शायद सम्भव ही नहीं है. यही सब परिवर्तित शब्दावली में
नवें श्लोक में दोहराया गया है:
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरीरसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम्.
स्मरान्तकं पुरान्तकं
भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकाsन्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे
.9
स्मरच्छिद रूप स्मरान्तक या कामान्तक मूर्ति ही
है, जिसके मदनदहन प्रतिपाद्य का वर्णन कालिदास ने तो किया ही है, कतिपय पुराणों में भी
मिलता है.
पुरच्छिद या पुरान्तक रूप का सम्बन्ध
त्रिपुरासुर पराभव से है. त्रिपुर अर्थात् स्वर्ण, रजत और ताम्र नगरी. कौन-सी
नगरी है यह? यह है हमारी अपनी देह, हम स्वयं. जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति के मूर्त रूप.
अहम् की तीन दशाओं, तीन गुणों का फल. मन है स्वर्ण-पुरी, प्राण रजत-पुरी और
भूतग्राम ताम्र या लोह-पुरी. शिव हैं इन तीनों दशाओं के सर्वोच्च नियन्ता. इसलिए इस
पैशाची प्रवृत्ति --निम्नस्थ अहम्-- के समर्पण के लिए इन
महादेव के पावन चरणों के अलावा और ठौर कौन हो सकता है?
भविच्छद या भवान्तक रूप
संसार के संहार से सम्बद्ध है. अर्थात्, भव-चक्र का, माया का, काल-चक्र का अवसान.
मखच्छिद या मखान्तक रूप
हमें दक्ष-यज्ञ के विध्वंस की याद दिलाता है. पुराण हमें यह कथा बताते हैं कि दक्ष
प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया. यज्ञ में न तो शिव को आमन्त्रित किया गया और न ही
उनकी शक्ति सती को. इस यज्ञ की परिणति हुई विनाश में. इस लीला का महत्व क्या है? यह ब्राह्मण ग्रन्थों के छिन्नशीर्ष मख से अभिन्न है. यज्ञ के दो पहलू होते
हैं: एक अधिदैवत और दूसरा अध्यात्म. अध्यात्म जुड़ा होना चाहिए अधिदैवत से. मर्त्य
मनुष्य अपनी ऊर्जा शाश्वत दिव्य सत्ता के अजस्र स्रोत से ही प्राप्त करता है. यदि
अहंकार के नशे में धुत दक्ष इस स्रोत से नाता तोड़ लेता है तो उसका अध्यात्म (वैयक्तिक
यज्ञ) ध्वस्त हो जाता है. फलदायिनी एकमात्र सती या महाशक्ति को छोड़कर दक्ष अपनी
सभी पुत्रियों को आमन्त्रित करता है, लेकिन ये सब की सब तो सती
की अनुपस्थिति में लाचार हैं न.
गजच्छिद या गजान्तक या
गजासुरसंहारमूर्ति का उल्लेख ऊपर हो चुका है. अन्धकच्छिद या अन्धकान्तक
मूर्ति का सम्बन्ध भगवान शिव के हाथों अन्धकासुर की पराजय और वध से है. मन से
विच्युत ज्योतिहीन प्राणिक ऊर्जा असुर अन्धक के समान है, जिसका समर्पण महादेव की महाशक्ति के आगे कर देने से अधिक श्रेयस्कर कुछ
नहीं.
अन्तकच्छिद या अन्तकान्तक
मूर्ति का सम्बन्ध कालजयी शिव के रौद्र रूप से है. शिव हैं महाकाल, कालारि. उन्होंने मृत्यु के देवता यम पर विजय पा ली है. मृत्यु का प्रतीक
गरल उन्होंने अपने कण्ठ में क़ैद कर रखा है.
यही श्लोक शिव को रसप्रवाहमाधुरी या आनन्दलहरी
के स्वामी के रूप में प्रस्तुत करता है. यह रस, यह आनन्द ही उनकी
सच्ची प्रकृति है. यह श्लोक आठवें श्लोक में दिए गए मूर्तिपरक
रूपों को भी दोहराता है.
दसवाँ श्लोक तृतीय नेत्र से उत्पन्न होने वाली अग्नि के मूल भाव को दोहराने
के अलावा, डमरू-मृदंग की ताल पर किए जाने वाले ताण्डव नृत्य का अर्थगर्भित मूल भाव
भी जोड़ता है:
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्करालभालहव्यवाट्.
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्
मृदङ्गतुङ्गमङ्गलध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः .10
ग्यारहवें और बारहवें श्लोक भगवान शिव की
सनातन संतुलित-समरस प्रकृति बखानते हैं:
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः
सुहृद्विपक्षपक्षयोः.
तृणारविन्दचक्षुषोः
प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन् मनः कदा सदाशिवं भजे .11.
कदा
निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्विमुक्तदुमंतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्.
विमुक्तलोललोचनाललालभाललग्नकः
शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्
.12
भगवान शिव हैं कि उनके लिए खुरदुरी शिला की
चुभन हो कि फूलों की सुखद सेज, विषैले भुजंग हों या शीतल मोती की माला, अमूल्य रत्न हो या निर्मूल्य
माटी का ढेला, प्राणप्रिय मित्र हो या घातक शत्रु, जंगली घास
हो या पुष्पराज कमल, सम्पन्न राजा हो या विपन्न हलवाहा -–सब
बराबर हैं. धराधाम पर ऐसे समदृष्टि महादेव का निर्लिप्त भक्त इसके अतिरिक्त क्या प्रार्थना
कर सकता है कि उसके अन्तिम दिन गंगा मैया के तट पर देवाधिदेव की आनन्दमयी सरस सलिला
में निमग्न होकर मधुर शिव नाम जपते हुए शान्त-एकान्त बसेरे में गुज़र जाएं. संसार में इससे बढ़कर सुख और क्या हो सकता है?
मात्र बारह श्लोकों वाला यह
शिवताण्डव स्तोत्र मूल भावों का निर्दोष अभिलेख तो है ही, उच्च कोटि की साहित्यिक कला का संदर्श भी है. इस स्तोत्र के चषक में से इधर
श्रद्धा-भक्तिपूर्ण प्रेरणा छलकी जा रही है और उधर भक्त के मन का पैमाना परम सत्ता
के अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति से.
आप यह जानकर चौंक जाइएगा
कि इस उत्कृष्ट स्तोत्र-काव्य रचना को किसी भी पुराण ने अपना हिस्सा होने का गौरव प्रदान
करना उपयुक्त नहीं समझा है. फिर भी, इसमें विद्यमान
मूल भावों का स्मरण-पुनर्स्मरण इस स्तोत्र के रचना-काल की ओर साफ़ इशारा करता है.
भारतीय कला में
ताण्डव-नृत्य के चित्रण का प्रारम्भ गुप्त काल में हुआ. लेकिन, त्रिपुरान्तक के साथ-साथ यमान्तक शिव-रूपों का चित्रण भारतीय मूर्ति-कला
में सबसे पहले राष्ट्रकूट काल में एलोरा की दशावतार गुफा और वहीं कैलाश मन्दिर में
मिलता है. दशावतार गुफा का निर्माण-कार्य दन्तिदुर्ग के काल (735-57 ई.) और कैलाश
मन्दिर का निर्माण कृष्णराज के काल (757-772 ई.) में सम्पन्न हुआ. यह बिरल संजोग
है कि वास्तु-शिल्प और मूर्ति-कला दोनों ही में अपने समय की सबसे अद्भुत-आश्चर्यजनक
ये उपलब्धियां एक साथ अन्धकासुरसंहारमूर्ति, दक्षयज्ञविध्वंसमूर्ति, गजासुरसंहारमूर्ति, उमामहेश्वरमूर्ति, अर्धनारीश्वर और ताण्डव मूर्ति के सत्संग से भी अलंकृत हैं.
समवेत रूप में ये सारे
मूर्तिपरक और साहित्यिक मूल भाव हमें राष्ट्रकूट काल की तरफ ले चलते हैं -–आठवीं
सदी के मध्य. शिव के कालारि या यमान्तक रूप का सम्बन्ध मार्कण्डेय संकट-मोचन के
चित्रण से है. इसमें मार्कण्डेय को यम के पाश से मुक्ति के लिए शिव की प्रार्थना करते
दरशाया गया है, जबकि शिव यम को लात मारकर मार्कण्डेय को मृत्यु
से मुक्त कर रहे हैं. श्री गोपीनाथ राव कृत Elements of Hindu Iconography के अनुसार, यह प्रतिपाद्य केवल एलोरा की दशावतार
गुफा और कैलाश मन्दिर में ही मिला है. गोपीनाथ यह भी बताते हैं कि ठीक इसी प्रकार
त्रिपुरान्तक का चित्रण भी प्रारम्भिक मूर्ति-कला में विरल है और अन्य चित्रणों के
साथ इसे केवल इन्हीं दो स्थानों पर देखा गया है. इससे पता चलता है कि ये 735-770 ई. की रचनाएं हैं. इसीसे शिवताण्डव स्तोत्र के काल-निर्धारण के लिए भी
तर्कसंगत आधार मिल जाता है कि हम इसे आठवीं सदी ईस्वी के मध्य की रचना मान सकें.
यहीं यह कहते हुए गौरव की अनुभूति होती है कि शिवताण्डव स्तोत्र का उत्स दक्खिन की
सरज़मीं है. साथ ही, यह कहते हुए अफ़सोस भी होता है कि अन्तर्कथा
सन्दर्भों से मालामाल यह सघोष-महाप्राण स्तोत्र राष्ट्रकूट काल के किसी ऐसे अतीव
प्रतिभासम्पन्न कवि की तेजस्वी कृति है जिसका अपना नाम तो हमेशा के लिए रहस्य के
गर्भ में रह जाएगा, लेकिन श्रेय रावण को मिलता रहेगा.
शिवताण्डव स्तोत्र की रचना
का आधार, रावण की शिव-आराधना का दृश्य एलोरा के भव्य शिलाचित्र कैलासोत्तोलनमूर्ति
में उत्कीर्ण है, जो रावणानुग्रह मूर्ति से जुड़ा है. श्री
गोपीनाथ के अनुसार, एलोरा की दशावतार गुफा इस मामले में भी
कैलाश मन्दिर के सदृश ही है. हाँ, यह ज़रूर ध्यान रखना चाहिए
कि एलिफेंटा गुफा-मन्दिर में भी रावणानुग्रह मूर्ति चित्रित है, लेकिन वहाँ शिव के त्रिपुरसंहार और यमान्तक या मार्कण्डेयानुग्रह रूप
नहीं मिलते. ये सब के सब इकट्ठे तो एलोरा की दशावतार गुफा और कैलास मन्दिर की ही
धरोहर हैं.